सामाजिक

लेख– लोकतंत्र, वीआईपी और न्यू इंडिया का वास्तविक धरातल

लोकतांत्रिक व्यवस्था के सापेक्ष तीन स्थितियां निर्मित हो रही हैं। पहली बढ़ती बेरोजगारी, दूसरा लोकतंत्र में बढ़ता विलासता पूर्ण जीवनशैली और तीसरी सबसे दुःखद स्थिति मानवता की क्षीण होती भावना। क्या लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए यह चिंता का विषय नहीं होना चाहिए। एक ओर लोकतांत्रिक व्यवस्था शैने-शैने वीआईपी व्यवस्था पर वार कर रहीं है, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था की सार्थक पहल है, लेकिन क्या उसका व्यापक असर दिख रहा है। अगर वीआईपी प्रक्रिया बंद कर जनता की ही सुध लेनी है, फिर रेलवे हो, पुलिस महकमा या कोई अन्य क्षेत्र हर जगह ऐसी बेगार लेने पर पाबंदी लगाने में एक साथ परेशानी क्यों और क्या है? क्या आज तक अनगिनत आदेशों के बाद पांच सितारा होटलों में होने वाली सेमीनार और बैठकें बंद हुईं? अधिकारियों के विदेश दौरे हर सरकारों में धड़ल्ले से चल रहे हैं, और शायद चलते रहेंगे। इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है, जिस परिस्थितियों में शव को ले जाने के लिए ग़रीब जनमानस को एम्बुलेंस नहीं मिलती। उस परिवेश में ही सांसद-विधायक ऐसे दौरों में जाते हैं जहां वे अपनी पत्नियों-बच्चों को साथ ले जाते हैं। इसके अर्थ भी शून्य बटे सन्नाटा जब मामूल होता है, जब पता चलता है, कि अधिकांश दौरों में बैठकों के नाम पर काम कम और सैर-सपाटा अधिक हुआ।

क्या यहीं संसदीय लोकतंत्र की अंतरात्मा की पुकार है? ऐसे में क्या संसदीय व्यवस्था में जन का कोई सार्थक अस्तित्व नहीं? बस क्या जन वोटबैंक की सियासी जाल का हिस्सा बनकर ही सीमित रह गए हैं? वीआईपी संस्कृति के सम्पूर्ण अंत को लेकर और जन को मजबूत बनाने के लिए पहल करनी होगी। तभी लोकतंत्र मजबूत होगा। इसके साथ मंत्रियों और शीर्ष अधिकारियों को भी स्वयं वीआईपी संस्कृति से मुक्त होने के बारे में विचार करना चाहिए, क्योंकि आज भी देश की व्यवस्था उन्नति की चाहें जितनी ढींगे मार ले। वास्तविक धरातल तो बुंदेलखंड जैसे स्थान की ख़बर देख़कर लोकतंत्र एक बार फ़िर शर्मिंदा हुआ। उसके साथ मानवतावादी दृष्टिकोण की धज्जियां हवा में तार-तार हो गई। जब एक बेटा अपने पिता की मौत के बाद मानवता के नाते एम्बुलेंस के लिए चीख़ लगाई, लेकिन आधुनिक होते लोकतांत्रिक व्यवस्था और आम जनमानस को उसकी आवाज़ छू नहीं पाई। ऐसे में उसे अपने पिता की लाश को गोदी में उठाकर ढोना पड़ा। यह कोई हमारे समाज की पहली घटना नहीं है। अस्पताल प्रशासन मौत के बाद एम्बुलेंस की व्यवस्था लाश को घर ले जाने के लिए करता है। लेकिन जब समाज इस तरीके की घटनाओं से जर्जर होता है।

तो मानवता को तार-तार कर देने वाली घटना सभ्य समाज के चौखट पर दस्तक देती है, कि वास्तविक स्थिति पर तो लोकतांत्रिक व्यवस्था में पर्दा डाला जा रहा है। जब एक सरकारी नियम के अनुसार 80 हजार लोगों पर 1 एंबुलेंस होनी चाहिए। लेकिन धरातल में उत्तरप्रदेश में 1.16 लाख पर 1 सरकारी एम्बुलेंस, वहीं महाराष्ट्र में सरकारी अस्पतालों और 108 सेवा की कुल 4456 एम्बुलेंस हैं। जो कि मात्र राज्य की आधी जरूरत को ही पूरा कर पाती है। वहीं बिहार में 300 सरकारी एम्बुलेंस की कमी है। यह तो मात्र छोटी सी समस्या का ज़िक्र है। आज भी देश में करोड़ों लोग दो जून की रोटी के लिए मोहताज हैं। ग़रीब की सीमा तमाम योजनाओं के बाद भी 32 रुपए को पार नहीं कर पाई है। फुटपाथ पर सोने वालों की लंबी कतार है। स्वास्थ्य सेवाएं बिना सुविधाओं के दम तोड़ रहीं है। रहने के लिए छत और पीने को साफ पानी नहीं। फ़िर अंतर तो ख़ुद को समझना होगा, कि स्थितियां जा कहाँ रहीं हैं, और लोकतंत्र निरीह होकर न्यू इंडिया की ओर निहार रहा है, कि उसके एवज में कुछ स्थितियां तो बदले।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896