“कुंडलिया”
अपनी गति सूरज चला, मानव अपनी राह
ढ़लता दिन हर रोज है, शाम पथिक की चाह
शाम पथिक की चाह, अनेकों दृश्य झलकते
दिनकर आए हाथ, चाँदनी चाँद मलकते
“गौतम” छवि दिनमान, वक्त पर जलती तपनी
पकड़ तनिक अभिमान, शुद्ध कर नीयत अपनी
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी