भीष्म पितामह का मृत्यु शय्या पर से युधिष्ठिर जी को उपदेश
ओ३म्
महाभारत में धर्म विषयक प्रभूत सामग्री उपलब्ध होती है। कीर्तिशेष स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती जी द्वारा सम्पादित महाभारत ग्रन्थ एक प्रशंसनीय ग्रन्थ है। सभी आर्यों को जीवन में 1444 पृष्ठीय इस वृहद ग्रन्थ का एक बार स्वाध्याय करने का प्रयत्न करना चाहिये। आज हम इस ग्रन्थ से भीष्म व युधिष्ठिर के उस संवाद को प्रस्तुत कर रहे हैं जिसमें युधिष्ठिर के प्रश्न पूछने पर भीष्म जी उसे सन्तान के माता, पिता व गुरूजनों के प्रति कर्तव्यों का महत्व बताते हैं। युधिष्ठिर जी ने भीष्म जी से पूछा कि हे भारत ! धर्म का मार्ग बहुत बड़ा है और इसकी शाखाएं भी बहुत हैं। इन धर्मों (कर्तव्यों) में से किसको आप विशेषरूप से आचरण में लाने योग्य समझते हैं? सब धर्मों में कौन-सा आपको श्रेष्ठ जान पड़ता है जिसका अनुष्ठान करके मैं इहलोक और परलोक में भी परम धर्म का फल प्राप्त कर सकूं? युधिष्ठिर जी के इन प्रश्नों का भीष्म जी ने महाभारत में जो उत्तर दिया वह निम्न हैः
भीष्म जी बोले-राजन्! मुझे तो माता-पिता और गुरुजनों का सम्मान ही अधिक महत्वपूर्ण धर्म जान पड़ता है। संसार में इस पुण्य कार्य में संलग्न होकर मनुष्य महान् यश और श्रेष्ठ लोक (योनि) को पाता है। ये माता-पिता और गुरुजन ही तीनों लोक हैं, ये ही तीनों आश्रम हैं, ये ही तीनों वेद हैं और ये ही तीनों अग्नियां हैं। पिता गार्हपत्य अग्नि है, माता दक्षिणाग्नि मानी गई है और गुरु आह्वनीय अग्नि का रूप है। लौकिक अग्नियों से माता-पिता आदि अग्नियों का गौरव कहीं अधिक है। यदि तुम इन तीनों की सेवा में कोई भूल नहीं करोगे तो तीनों लोकों को जीत लोगे। पिता की सेवा से इस लोक को, माता की सेवा से परलोक को और नियमपूर्वक गुरु की सेवा से ब्रह्मलोक=मोक्ष को प्राप्त कर लोगे।
इन तीनों, माता-पिता-गुरुजनों, की आज्ञा का कभी उल्लंघन न करें, इनको भोजन कराने के पूर्व स्वयं भोजन न करें, इन पर कोई दोषारोपण न करें तथा सदा इनकी सेवा में संलग्न रहें, यही सर्वोत्तम पुण्यकर्म है। हे राजेन्द्र ! इनकी सेवा से तुम कीर्ति, पवित्र यश और उत्तम लोक सब-कुछ प्राप्त कर लोगे। जिसने इन तीनों का आदर-सत्कार कर लिया, उसके द्वारा सम्पूर्ण लोकों का आदर हो गया और जिसने इनका अपमान किया, उसके सम्पूर्ण शुभकर्म निष्फल हो जाते हैं। उपाध्याय=विद्यागुरु दस आचार्यों से अधिक महत्व रखता है। पिता दस उपाध्यायों से बढ़कर है और माता का महत्व दस पिताओं से भी अधिक है। माता के समान दूसरा कोई गुरु नहीं है। भीष्म जी कहते हैं कि मेरा विश्वास है कि गुरु का पद माता और पिता से भी बढ़कर है, क्योंकि माता–पिता तो केवल इस शरीर को जन्म देने के ही उपयोग में आते हैं परन्तु आचार्य का उपदेश प्राप्त करके जो दूसरा जन्म प्राप्त होता है, वह दिव्य है, अजर–अमर है।
भीष्म जी के अनुसार जो लोग विद्या पढ़कर गुरु का आदर नहीं करते, निकट रहकर मन, वचन और कर्म से गुरु की सेवा नहीं करते, उन्हें भ्रूण (गर्भ के बालक) की हत्या से भी बढ़कर पाप लगता है। संसार में उनसे बड़ा पापी दूसरा कोई नहीं है। अतः जो पुरातन (वैदिक) धर्म का फल पाना चाहते हैं, उन्हें चाहिए कि वे गुरुओं का सम्मान करें और प्रयत्नपूर्वक उन्हें आवश्यक वस्तुएं लाकर दें। मनुष्य जिस कर्म से पिता को प्रसन्न करता है, उसी के द्वारा प्रजापति परमेश्वर भी प्रसन्न होते हैं। जिस व्यवहार से पुत्र अपनी माता को प्रसन्न कर लेता है, उसी के द्वारा सम्पूर्ण पृथिवी की पूजा भी हो जाती है।
अन्त में भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर जी के प्रश्नों का उत्तर यह वचन बोलकर समाप्त किया ‘मित्रद्रोही, कृतघ्न, स्त्रीघाती और गुरुहत्यारा इन चारों के पाप का प्रायश्चित हमारे सुनने में नहीं आया है।’
माता-पिता व गुरु के प्रति सम्मान की भावना रखना वेदों का सिद्धान्त है। इसी कारण प्राचीन काल से आर्यों में पंचमहायज्ञों का विधान है जिसमें तीसरा दैनिक कर्तव्य पितृ यज्ञ है। एक प्रकार से भीष्म जी ने पितृ यज्ञ से सम्बन्धित महत्वपूर्ण वचनों को ही युधिष्ठिर जी को कहा है। इतिहास में रामायण एक ऐसा ऐतिहासिक ग्रन्थ है जहां श्री राम ने अपने माता-पिता के वचनों का जिस प्रकार से निर्वाह किया है, राजपाठ का स्वेच्छा से त्याग किया, 14 वर्ष का अकारण वनवास भोगा आदि, वह आदर्श है और ऐसा अन्य उदाहरण संसार में अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलता। उन्हीं भावनाओं व उसी के अनुकूल भीष्म जी के विचार हैं जो उन्होंने युधिष्ठिर जी के प्रश्न के उत्तर में कहें हैं। आज भी वेद, रामायण एवं महाभारत की शिक्षायें प्रासंगिक ही नहीं आवश्यक भी हैं। संसार के अन्य मतों वा धर्मों में यह शिक्षायें इतने तर्कसंगत एवं उत्तम रूप में प्राप्त नहीं होती न उनके प्रवर्तकों व आचार्यों का ऐसा कहीं वर्णन प्राप्त होता है। इस लेख को हम यहीं विराम देते हैं। हम आशा करते हैं कि उपर्युक्त प्रसंग को पाठक पसन्द करेंगे। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य