ग़ज़ल
तसव्वुर का नशा गहरा हुआ है
दिवाना बिन पिए ही झूमता है
नहीं मुमकिन मिलन अब दोस्तो से
महब्ब्त में बशर तनहा हुआ है
करूँ क्या ज़िक्र मैं ख़ामोशियों का
यहाँ तो वक़्त भी थम-सा गया है
भले ही खूबसूरत है हक़ीक़त
तसव्वुर का नशा लेकिन जुदा है
अभी तक दूरियाँ हैं बीच अपने
भले ही मुझसे अब वो आशना है
हमेशा क्यों ग़लत कहते सही को
“ज़माने में यही होता रहा है”
गुजर अब साथ भी मुमकिन कहाँ था
मैं उसको वो मुझे पहचानता है
गिरी बिजली नशेमन पर हमारे
न रोया कोई कैसा हादिसा है
बलन्दी नाचती है सर पे चढ़के
कहाँ वो मेरी जानिब देखता है
हमेशा गुनगुनाता हूँ बहर में
ग़ज़ल का शौक़ बचपन से रहा है
जिसे कल ग़ैर समझे थे वही अब
रगे-जां में हमारी आ बसा है
— महावीर उत्तरांचली