वामपंथ और मीडिया का अनूठा गठजोड़
राजनीति और पत्रकारिता की दुनिया में इस पर कोई एकराय नहीं है कि आतंकवाद क्या है या एक आतंकवादी गतिविधि में क्या-क्या शामिल होता है. आतंकी शब्दों का इस्तेमाल लोग अकसर अपने नजरिए और समझ के हिसाब से करते हैं. मसलन आतंकवादी कौन है, और उसका किस विचाधारा, मत और मजहब से सीधा सम्बन्ध है. हाल ही में अमेरिका के लास वेगास में संगीत समारोह में हुए हमले में 58 लोगों की जान लेने और 500 से ज्यादा लोगों को घायल करने वाले हत्यारे स्टीफन पैडक को लेकर मीडिया में एक बहस जोर पकड़ रही है, पैडक ने एक समारोह में संगीत सुनने आई भीड़ पर पड़ोस के होटल की 32वीं मंजिल से गोलियां बरसाई थीं. उनके लिए हत्यारा, हमलावर, बंदूकधारी, लोन वुल्फ, जुआरी और पूर्व अकाउंटेंट जैसे शब्द इस्तेमाल हो रहे हैं लेकिन किसी ने अभी तक उन्हें आतंकवादी नहीं बुलाया. पश्चिमी मीडिया ने इस वारदात के लिए अमरीका के गन कल्चर को भी जिम्मेदार ठहराया है. जबकि इस हमले को अमरीकी इतिहास में सबसे भयावह गोलीबारी कांड है.
हालाँकि गोलीबारी की ये अमरीका में कोई पहली घटना नहीं है. ऐसा अतीत में होता रहा है. पिछले वर्ष ऑरलैंडो के एक नाइट क्लब में हुई गोलीबारी में 49 लोग मारे गए थे. इससे पहले दिसंबर, 2015 में कैलिफोर्निया में हुई ऐसी ही एक घटना में 14 लोगों ने अपनी जान गंवाई थी. लेकिन इस बार सवाल उठ रहे है हत्यारे के मजहब को लेकर? सोशल मीडिया पर कुछ लोग लिख रहे हैं कि अगर पैडक अन्य धर्म से होता तो उनके लिए तुरंत “आतंकवादी” शब्द लिख दिया जाता. लेकिन कोई गोरा और ईसाई ऐसा हमला करे, तो उसे अचानक मानसिक रूप से बीमार बता दिया जाता है और सब कुछ सामान्य रहता है.
इसे भाषा की निष्पक्ष पत्रकारिता के सिद्धांत का जरुर दोहरा असर कहा जा सकता है और इसमें समस्त विश्व की मीडिया को आइना दिखाया जा सकता है. क्योंकि 2007 में अजमेर दरगाह विस्फोट में भावेश पटेल और उसके साथी को आजीवन कारावास की सजा सुनाये जाने के बाद अगले दिन हिंदुस्तान टाइम्स की हेड लाइन में लिखा था “अजमेर दरगाह विस्फोट केस में दो हिन्दू आतंकियो को आजीवन कारावास” मतलब कि मात्र एक घटना से भवेश पटेल के साथ हजारों लाखों वर्ष पुरानी सनातन परम्परा को आतंक शब्द से लपेटने वाले यही पत्रकार बन्धु थे जिन्हें आज 58 लोगो का हत्यारा पेड़क जुआरी नजर आ रहा है.
पश्चिमी मीडिया को अलग रखकर यदि बात अपने देश की मीडिया की करें तो यहाँ हर रोज मीडिया कर्मी किसी भी इस्लामिक व्यक्ति के किसी हिंसक कृत्य पर बड़े इत्मिनान से कहते नजर आते कि आतंक का कोई मजहब नहीं होता लेकिन देश को जिहादी आतंकवादी कृत्यों से बचाव के लिए देश के सुरक्षा बलों ने जब मजहब विशेष के आरोपियों को बंदी बनाना आरंभ किया, तब मुसलमानों में असंतोष बढने लगा. तब इस असंतोष को दूर करने और उन्हें खुश करने के लिए देश में ‘हिन्दू आतंकवाद की परिभाषा गढ़ी गयी. इस षड्यंत्र के एक भाग के रूप में मालेगांव बम विस्फोट प्रकरण कई लोगों को फंसाया गया. इसके बाद इस वर्ष एक घटना कश्मीर में जब संदीप शर्मा उर्फ आदिल की गिरफ्तारी होती है वह न केवल कट्टर इस्लामिक था बल्कि पांच वक्त का नमाजी भी था. तब भी पुरे देश की मीडिया ने उसके साथ ‘हिन्दू आतंकवादी’ शब्द का बेशर्मी से इस्तेमाल किया था.
पिछले कुछ वर्षो में देखे जब दिल्ली में कुछ ईसाई गिरिजाघरों में हुई छूटपुट चोरी की घटनाओं को अल्पसंख्यक ईसाई समाज पर हमला और उसके विरुद्ध दिल्ली, बैंगलोर से लेकर कोलकाता तक ईसाईयों द्वारा प्रदर्शन को मीडिया द्वारा बढ़ा चढ़ा कर प्रदर्शित किया गया था जबकि उसी काल में दिल्ली के मंदिरों में करीब 206 और गुरुद्वारों में 30 चोरी की घटनाएँ हुई थी लेकिन वह सब छिपा दी गयी. कहने की आवश्यकता ही नहीं हैं की मीडिया अपने बौद्धिक आतंकवाद द्वारा व्यर्थ की सहानुभूति बटोर लेता है. ये बुद्धिजीवी यह कार्य हर एक क्षेत्र में करते दिखाई देते है. जब देश के पूर्वोत्तर इलाकों में ईसाई संस्थाओं द्वारा किये जा रहे धर्मान्तरण को लेकर मीडिया छाती ठोककर उनका समर्थन करता रहा हैं उसे सेवा एवं उसे जायज ठहराता हैं जबकि यही मीडिया 2015 में आगरा में हुई घर वापसी की घटना को लेकर हिंदूवादी संगठनों के विरुद्ध मोर्चा खोल कर उन्हें अत्याचारी, लोभ प्रलोभन देकर हिन्दू बनाने का षड़यंत्र करने वाला सिद्ध करने में लगा था.
पत्रकारिता का स्वच्छ अर्थ होता कि पत्रकार जाति, धर्म, सम्प्रदाय से ऊपर उठकर बिना किसी रंगभेद और क्षेत्रवाद के बिना समाज में अपनी आवाज उठाये लेकिन फिलहाल पुरे विश्व में पत्रकारिता के ये सिद्धांत उलट हो गये है. ये केवल इस मामले की बात नहीं है फ्रांस के शहर नीस में ट्रक से सेंकडो लोगों को कुचलने वाला मुस्लिम ट्रक ड्राइवर मानसिक रोगी बता दिया जाता है और लंदन में हमला करने वाला ख़ालिद मसूद को यह कहकर बचाया जाता कि वह कुछ समय से चरमपंथ के प्रभाव में आ गया था. ऑरलैंडो के नाइट क्लब में हमला करने वाला उमर मतीन को यही पश्चिमी मीडिया होमोसेक्शुअल्स से नफरत करने वाला इन्सान कहकर बचाव करती है. आखिर क्या वजह है कि अजमेर दरगाह में ब्लास्ट होने पर पूरा हिन्दू समुदाय को भगवा आतंक कहा जाता है और इतने बड़े-बड़े हत्याकांड होने पर सिर्फ मानसिक रोगी या जुआरी, भेड़िया? या ये वामपंथ और मीडिया का गठजोड़ है?
— राजीव चौधरी