ग़ज़ल
ज़रा सी ज़िंदगी के वास्ते क्या-क्या गँवाया है ।
कभी रातों जगाया है कभी रातों सुलाया है ।।
ज़रा बैठो तसल्ली से तुम्हें धड़कन सुनानी है
मग़र सुनने से पहले क्यूँ समुन्दर झिलमिलाया है
गुज़ारिश है मेरी तुमसे कि ये ताक़ीद मत करना
मुझे इसने बुलाया है मुझे उसे उसने बुलाया है
ख़ुदा के वास्ते अपने जिगर पे हाथ रख लेना
ज़माने भर के जुल्मों ने मुझे इतना सताया है
बहुत से दर्द झेले हैं जिगर पे चोट खाई है
कहीं जाकर तभी ये फ़न उतर काग़ज़ पे आया है
अकेला हूँ मगर तन्हा नहीं वो साथ है हरदम
मेरे भीतर ये लगता है कि कोई गुनगुनाया है
समुन्दर का भँवर उलझा हुआ तूफ़ान की ज़द में
बढ़ाकर हाथ साहिल ने मुझे यारो बचाया है
किसी का हाथ पकड़ो तो झटक देना मरुस्थल में
ज़माने ने ज़माने को फ़क़त इतना सिखाया है ।
— संजय ‘सरस’, लाडनूं
9929632496
शुक्रिया !
सुन्दर ग़ज़ल