हिन्दू-मुस्लिम समस्या
१९८० के दशक तक मेरे गांव में हिन्दुओं और मुसलमानों में जो आपसी सौहार्द्र था वह अनुकरणीय ही नहीं आदर्श भी था। मेरे गांव के मुसलमान ताज़िया बनाते थे। पिताजी के पास बांस के चार कोठ थे। इसलिए मुसलमान पिताजी से ताज़िया बनाने के लिए बांस भी ले जाते थे, साथ ही सहयोग राशि भी ले जाते थे। पिताजी उन लोगों को अपनी बंसवारी से बांस उसी प्रसन्नता से देते थे जिस तरह किसी हिन्दू लड़की के विवाह के लिए मण्डप निर्माण के लिए बांस देते थे। मुस्लिम भी मुहर्रम के दिन जब ताज़िया का जुलूस निकालते थे तो मेरे घर पर जरुर आते थे। दरवाजे के सामने ताज़िया रखकर तरह-तरह के करतब दिखाते थे। मेरे घर की महिलाएं बाहर निकलकर ताज़िए का पूजन करती थीं। जुलूस में ज्यादा संख्या में हिन्दू ही लाठी-भाला लेकर मुसलमानों के साथ ताज़िए के साथ चलते थे। हमलोग उसदिन पटाखे छोड़ते थे। लगता ही नहीं था कि मुहर्रम हमारा त्योहार नहीं है। मुसलमान भी हिन्दुओं के त्योहार मनाते थे। मेरे गांव की कई मुस्लिम औरतें छठ का व्रत रखती थीं और पूरे विधि-विधान से अर्घ्य देती थीं। मेरे गांव में वसी अहमद एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। वे और उनका परिवार हिन्दुओं के साथ होली खेलता था। होली की मंडली के स्वागत के लिए पूरा परिवार पूरी व्यवस्था रखता था। वे शिया संप्रदाय के थे। उन्हें और उनके पड़ोसियों को रंग-अबीर से कोई परहेज़ नहीं था। शादी-ब्याह, व्रत-त्योहार में परस्पर बहुत सहयोग था। लेकिन १९८० के बाद माहौल में बदलाव आना शुरु हो गया। कुछ मौलाना तहरीर के लिए गांव में आने लगे। उनकी तहरीर रात भर चलती थी। उनकी तहरीर सिर्फ मुसलमान ही नहीं सुनते थे बल्कि हिन्दुओं को भी लाउड स्पीकर के माध्यम से जबर्दस्ती सुनाया जाता था। परिणाम यह हुआ कि दोनों समुदायों में सदियों पुराना पारस्परिक सहयोग घटते-घटते बंद हो गया। अब ताज़िए के जुलूस में हिन्दू शामिल नहीं होते। इन सबके बावजूद भी शिया मुसलमानों के संबन्ध आज भी हिन्दुओं के साथ सौहार्द्रपूर्ण हैं। मेरे गांव के शिया मुसलमान सुन्नियों के साथ कम और सवर्ण हिन्दुओं के साथ उठना-बैठना ज्यादा पसंद करते हैं। जहां सुन्नी मुसलमान अलग बस्ती में रहते हैं, वहीं शिया मुसलमान बिना किसी भय के हिन्दुओं से घिरी बस्ती में सदियों से रहते आ रहे हैं। न कोई वैमनस्य, न कोई झगड़ा। क्या भारत के सुन्नी मुसलमान शियाओं की तरह उदार नहीं हो सकते? जब हमें साथ-साथ ही रहना है तो क्यों नहीं उदारता, सहिष्णुता और एक दूसरे के धर्मों के प्रति सम्मान के साथ रहा जाय?
कुछ हिन्दूवादी संगठन मुसलमानों की घर वापसी के पक्षधर हैं। मेरा उनसे एक ही सवाल है कि अगर कोई मुसलमान घर वापसी करता है तो उसे किस जाति में रखा जायेगा? सैकड़ों जातियों में बंटा जो हिन्दू समुदाय आज तक एक हो नहीं सका वह मुसलमानों को कहां स्थान देगा? यह विचार अव्यवहारिक है। मुसलमानों में भी जो पढ़े-लिखे हैं और इतिहास का ज्ञान रखते हैं, उनका मानना है कि अखंड भारत के ९९% मुसलमान परिस्थितिवश हिन्दू से ही मुसलमान बने हैं। हमारे पूर्वज एक ही हैं और हमारा डीएनए भी एक ही है। भारत के मुसलमानों का डीएनए अरब के मुसलमानों से नहीं मिलता। जिस दिन भारत का मुसलमान इस सत्य को स्वीकार कर लेगा, उसी दिन हिन्दू-मुस्लिम समस्या का सदा के लिए अन्त हो जाएगा। इसके लिए हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के प्रबुद्ध वर्ग को सामने आकर यह जिम्मेदारी उठानी पड़ेगी। अलग रहने की हमने बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। अब साथ रहकर हम विश्व को नई दिशा दिखा सकते हैं। हिन्दुओं ने जैसे बौद्धों, जैनियों, सिक्खों को अपने से अभिन्न स्वीकार किया है, उसी तरह अलग पूजा पद्धति को मान्यता प्रदान करते हुए मुसलमानों का भी मुहम्मदपंथी हिन्दू के रूप में दिल खोलकर स्वागत करेंगे। फिर हमलोग ईद-बकरीद, दिवाली-दशहरा और होली साथ-साथ मनायेंगे। न कोई राग होगा, न कोई द्वेष, न लड़ाई न झगड़ा।