परिवर्तन
मम्मी! “ऑन लाइन आर्डर कर दूँगा, या चलिए मॉल से दिला दूँगा| वह भी बहुत खूबसूरत-बढ़िया दीये। चलिए यहाँ से| इन गँवारो की भाषा समझ नहीं आती, ऊपर से रिरियाते हुए पीछे ही पड़ जाते हैं|”
मम्मी उस दूकान से आगे फुटपाथ पर बैठी एक बुढ़िया की ओर बढ़ी। उसके दीये खरीदने को, जमीन में बैठकर ही चुनने लगीं|
“क्या मम्मी, आप ने तो मेरी बेइज्जती करा दी, मैं ‘हाईकोर्ट का जज’ और मेरी माँ जमींन पर बैठी दीये खरीद रही है| जानती हो कैसे–कैसे बोल बोलेंगे लोग| ‘जज साहब’ ….”
बीच में ही माँ आहत हो बोली …”इसी जमीन में बैठकर ही दस साल तक सब्जी बेची है, और कई तेरी जैसो की मम्मियों ने ही ख़रीदा है मुझसे सब्जी, तब जाके आज तू बोल पा रहा है।”
संदीप विस्फारित आंखों से माँ को बस देखता रह गया।
“वह दिन तू भले भूल गया बेटा, पर मैं कैसे भुलू भला| तेरे मॉल से या ऑनलाइन दीये तो मिल जायेंगे, पर दिल कैसे मिलेंगे भला?”
दीये बेचने वाली बुढ़िया नम आँखों से बोली- “हमार पोता भी इही छोट मोट काम भरोसे पढ़ी रहा है। बेटवा मूरति की रेहड़ी लगाए बा उहा।” कहकर ऊँगली दिखा दी। मम्मी उस दुकान की ओर बढ़ी तो संदीप तिलमिलाया लेकिन उस गरीब बुढ़िया की आँखों के आँसू मोती से चमक उठे।