हास्य-व्यंग्य : मैं हिंदी
खूब साज सृंगार कर सज-धज रही थी ! महकते हुए सुंदर रंगबिरंगे फूल खूबसूरती में चार चाँद लगा रहें थे | वह भी बहुत प्रसन्न थी | घर का हर एक जानापहचाना सदस्य उसकी पूछ जो कर रहा था| इधर-उधर इठलाती हुई वह इतरा रही थी |
पुरे इलाके में भी सज-धज कर मटक आई थी वह | अपनी हर सालगिरह पर वह हर बार ऐसा ही तो करती थी| आज भी कर रही थी | अभी कई जगह उसे जाना था अपनी खूबसूरती को दिखाने| पर वह इस बात से अनजान थी कि कई उसकी बुराई भी कर रहे थे | कईयों ने तो सामने मुहँ पर ही व्यंग्य किए –‘इतरा लो खूब दो-चार दिन, जब मेकअप उतर जायेगा तो असली रंगत तुम्हारी भी दिखने लगेगी, तुम्हारी बहनों की तरह|’
पर वह बेपरवाह सी माँ-मासी–बहनों के घर भी घूम आई| उसे लग रहा था माँ के बाद सब उसे हाथोंहाथ लेंगे| लेकिन मासी, बहनों ने अपनी-अपनी गृहस्थी जमा ली थी| वे सब अपनों के बीच वो इसकी धाक नहीं जमने देना चाहती थी| अतः उसे अपनी डेहरी के अंदर भी प्रवेष न करने दिया| उसके, उनके घर जाने पर जब कोई आवभगत न हुई तो वह बहुत ही मायूस हुई| पर अगले ही पल जब किसी अपने ने सत्कार में फूल बिछा दिए तो वह खुश हो उसके साथ आगे बढ़ ली |
ख़ास वह एक दिन भी आया| उसके तारीफ में स्टेज से बड़े-बड़े कसीदें पढ़े गए| महिमामंडन करते हुए उसके तारीफों के पूल बाँध दिए गए| उसका इतराना चरम पर था| सभी की जिह्वा से उस पर फूलों की वर्षा जो हो रही थी| अंग्रेजियत की शाल ओढ़े लोग क़ागज पर बड़े लम्बे-लम्बे भाषण लिख कर बैठे थे | अपनी-अपनी बारी आते ही लच्छेदार शुद्ध हिंदी में बोल रहे थे | कुछ शब्द सुन तो वह (हिंदी) खुदबखुद बगले झांकती दिखी ; भूल जो गई थी अपने आप को ही | सदियों से ऐसे महिमामंडित क्लिष्ट शब्द उसने भी न सुने थे| राजा-महाराजाओं के जमाने के बाद शायद इन दिनों ही वह अपने विशुद्ध रूप को निहार पाती थी| उसके सौन्दर्य में चाँद की चौबीसों कलाएँ आकर इन दिनों बस जाती थी | फिर आखिर क्यों न इतराती वह|
आज हिंदी दिवस के विहाने वह उसी गुरुर में इतराती हुई बड़े से खँडहर नुमा भवन में जा पहुँची | जो पिछले दस दिन उसकी आवभगत में कुर्सी छोड़ सम्मान में उठ खड़े हुए थे| वही सारे के सारे लोग आज सौत की बाँहों में खेल रहे थें | किसी ने भी उसे कोई सम्मान न दिया | बड़े बड़े अक्षरों में अंग्रेजी में लोगों के पते लिफ़ाफे पर लिखे जा रहें थे ; लिफ़ाफे के नीचे, हिंदी का प्रयोग कर अपनी राजभाषा का सम्मान करिए, मुहँ चिढ़ा रहा था| धूलधुसरित हिंदी की तख्ती भी लगी दिख रही थी चारों ओर | यह सब देख के वह हतप्रभ रह गई| सोचने लगी अभी तो चौदह सितम्बर गए एक दिन भी न हुआ और मेरा यह हाल ! इन सब के मुखौटे उतरे या मैं ही अपने सुनहरे भविष्य के सपने इन दोगले लोगों के आँखों में देखने लगी थी|
सहसा उसे लोगों का कटाक्ष याद आया तो उसने आईना निहारा| आह ! मेअकप उतर गया था | मैं तो बड़ी सामान्य सी दिखने लगी हूँ | मेरे सामने मेरी सौत बड़ी खूबसूरत और मार्डन नजर आ रही है | अपनों से ही अपना अपमान न सह सकीं | मर्यादा के जंजीरों में जकड़ी हुई वह चुपचाप वहाँ से बाहर निकल आई|