“मुक्तक”
चपला चमक रही निज नभ में, मन चित छवि लग री प्यारी।
बिजली तड़क गगन लहराती, आभा अनुपम री न्यारी।
जिय डरि जाए ललक बढ़ाए, प्रति क्षणप्रभा पिय नियराए-
रंग बदलती सौदामिनी, बिजुरी छमके री क्यारी॥-1
चंचला अपने मन हरषे, मानों नभ को बुला रही।
दामिनी चमके नभ गरजे, धरती पलना झुला रही।
सहशयनी मृग नयनी आली, चपला चाहत हिलीमिली-
क्षणप्रभा अपनी गति चलती, लगता झुमका डुला रही॥-2
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी