लेख— शिक्षकों का काम गड्डा खोदना तो नहीं?
शिक्षक का उत्तरदायित्व क्या होता है। अगर हमारी रहनुमाई व्यवस्था आज तक तय नहीं कर पाई। तो इससे शर्मिंदगी की बात ओर कोई हो नहीं सकती। केंद्र की सरकार हो या राज्य की। शिक्षा को लेकर उसके खोखले वादे हमेशा से सामाजिक सरोकार के विषय को तार-तार करते रहें हैं। शिक्षा को लेकर मध्यप्रदेश का क्या सूरतेहाल है, किसी से छुपा नहीं है। शिक्षकों की भारी कमी, गुणवत्ता में पिछड़ापन सूबे की कथनी और करनी को बयां करते हैं। आज के वक़्त में सरकारी स्कूल के शिक्षक निरीह और निराश्रित हो चले हैं । शिक्षा में खामियों की खबरें प्रतिदिन अखबारों का हिस्सा बनती रहती हैं, लेकिन सुधार की बयार कहीं से उठती नहीं दिखती। देश में शिक्षा की बिगड़ती व्यवस्था का कारण शिक्षकों का सरकारी व्यवस्था द्वारा हाशिए पर खड़ा कर दिया जाना भी है। बात चाहे मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ सूबे की हो, या देश के अन्य भागों की। सरकारी स्कूल बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहें हैं। सरकारी स्कूलों में तमाम सुविधाएं मुहैया कराने की बात तो होती है, तो इसके साथ सरकारी दावे भी बहुत होते हैं, लेकिन वास्तविक धरातल पर होता वही ढाक के तीन पात।
शिक्षकों की बेबसी का फायदा राजनीतिक तंत्र आजादी के वक्त से ही लेता रहा है। क्या हमारे समाज में शिक्षकों का दायित्व जानवरों की गिनती करना, मेले में ड्यूटी करना, प्याज की सरकार की तरफ़ से खरीदी करना और तो और शौचालय के लिए गड्ढे खुदवाने का कार्य ही बचा है। वास्तव में यह स्थिति बहुत ही दयनीय स्थिति शिक्षा की व्यक्त करती है। आज के डिजिटल, और नव निर्माण भारत के दौर में मध्यप्रदेश के सरकारी स्कूलों की स्थिति यह है, कि कहीं पर स्कूल पेड़ के नीचे चल रहा है। तो कहीं सार्वजनिक भवन में । उसके पश्चात भी शिक्षा को लेकर बड़े बड़े वादे किए जाते हैं। आज ऐसे में सवाल तो बहुतेरे हैं, लेकिन जवाब किसी के पास नहीं। क्या सरकारी स्कूलों को मूलभूत सुविधाएं मुहैया हो पाई है? क्या शिक्षा रोजगार निर्माण का साधन बन पाई है? क्या सरकारी स्कूल की शिक्षा पर विश्वास किया जा सकता है? क्या शिक्षकों की कमी दूर हो गई? इन प्रश्नों के उत्तर किसी के पास नहीं। फ़िर सूबे के आला अफ़सर और व्यवस्था शिक्षकों की नियुक्ति कैसे जनगणना करने, और शौचालय के लिए गड्ढे खोदने के लिए कर देती है? मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ और पन्ना जिले में शौचालय के गड्ढे खुदवाने के लिए शिक्षकों की नियुक्ति करना, शिक्षा के अधिकार, शिक्षकों के अधिकार और छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ है। ऐसी प्रथा बन्द होनी चाहिए। शिक्षा का अधिकार कानून यह बताता है, कि शिक्षकों की ड्यूटी पढ़ाने के अलावा और कहीं नहीं होगी, लेकिन इसे मानता कौन है? मध्यप्रदेश में ही पिछले साल सिंहस्थ कुंभ में शिक्षकों की ड्यूटी चप्पल के स्टैंड की देखरेख में लगा दी गई थी तो कुछ महीने पहले सिंगरौली जिले में सामूहिक विवाह में शिक्षकों की ड्यूटी खाना परोसने के लिए की गई।
इसके साथ अगर मध्यप्रदेश में शिक्षा के नाम पर पिछले चार वर्षों में 61 हजार करोड़ रुपये खर्च हो रहें हैं, फिर भी शिक्षा क्षेत्र में सुधार नहीं होना यह साबित करता हैं, कहीं न कहीं शिक्षकों से दूसरे काम करवाने की वजह से भी शिक्षा का बेड़ा गर्त हो रहा हैं। यह सूबे के समक्ष सवाल खड़ा करता हैं, कि अगर सूबे की शिक्षा व्यवस्था में आमूल- चूल परिवर्तन लाने के लिए 40 हजार करोड़ रुपये शिक्षकों के वेतन पर खर्च होते हैं, फिर शिक्षा के स्तर में सुधार होना चाहिए। इसके साथ सूबे में शिक्षा को सबके लिए सुलभ बनाने के लिए अगर पिछले पांच वर्षों में स्कूलों की संख्या दो गुनी होने पर भी, प्राइमरी स्कूलों में अगर, हाईस्कूल चल रहें हैं, फिर यह चिंता का विषय होने के साथ सोचनीय भी हो जाता हैं, कि इतने भारी- भरकम बजट के बाद भी शिक्षा क्यों नहीं सूबे में सबके लिए अधिकार बन पाई हैं, और शिक्षा क्यों नहीं रोजगार सृजन के साथ गुणवत्तापूर्ण हो पाई हैं?