आरक्षण
सिंहों की खातिर पिंजड़े है ,श्वानों को सिंहासन मिलता ।
मिल रहे कैक्टस को गमले, कीचड़ के बीच कमल खिलता ।
होते अयोग्य हर दिन पदस्थ ,मेधावी भटक रहे दर दर ।
यह कैसी उल्टी गंगा है, यह कैसा है अंधेर नगर ।
हो रहा पलायन प्रतिभा का,है अपमानित हो रहा ज्ञान ।
हत्या करता है प्रतिभा की ,आखिर ये कैसा है विधान ?
जो पिछड़े है वो नही जान पाये कि क्या है आरक्षण ।
कुछ जातिनाम वाले मानव ,कर रहे पीढ़ियो से भक्षण ।
उनके बच्चे कोटा लेते,जो नीली बत्ती में चलते ।
बन गये विधायक कोटे से ,फिर कोटे से चुनाव लड़ते।
जो रोज दिहाड़ी करते हैं, या ईंटा गारा करते हैं ।
उन बेचारो के बच्चे भी फिर उसी राह पग धरते हैं ।
वो कब आरक्षित होते हैं, वो कब उन्नति कर पाते हैं?
बन कर गरीब पैदा होते ,रह कर गरीब मर जाते हैं ।
कुछ मठाधीश पीढ़ी दर पीढ़ी इनका हिस्सा खाते हैं।
जो दलित पीर तक न जानें,वो खुद को दलित बताते हैं ।
इस अंधनीति में आखिर कब तक बंदर रोटी बाँटेगे ?
खायेंगे कब तक शेर घास औ गधे पंजीरी काटेंगे ?
कब तक आरक्षण गाँवों के पिछड़े दलितों तक जायेगा ?
या फिर मजदूर दलित ,पीढ़ी दर पीढ़ी दलित कहायेगा ?
यह प्रतिभा के हत्या करने की क्रूर रीति अब बंद करो!
परिवर्तन कोई करो इसमें,या अंधनीति यह बंद करो !
आरक्षण के इन मठाधीश लोगों का पोषण बंद करों !
प्रतिभा का और गरीबी का ,रोको यह शोषण, बंद करो!
मानसिक पंगुओं की सेना हर रोज बनाना बंद करो ।
बाजों के बाँध चोंच पंजे, चिड़ियों से लड़ाना बंद करों ।
© डा. दिवाकर दत्त त्रिपाठी