कविता : पीड़ा
ये पीड़ा
वो पीड़ा
जाने कितनी पीड़ाओं में
व्यक्तित्व दबा है!
देह पीड़ा में
रोगों की छाया से
शरीर कुंद हुआ
मन पीड़ा में
ह्रदय धात हुआ
अंर्तमन अंत:पीड़ा में
अवचेतन शून्य हुआ
समाजिक पीड़ा में
मानंसिक कुठा पैदा हुई
सबके सब पीड़ा में है!
और ये मिलती कहाँ से
खुद मुझसे
मेरे अपनों से
समाज से
परिवार से!
चक्रिय रूप में ये
पृथ्वी जैसी घूमती है
जीवन में पीड़ा का
रूप नित बदलता रहता
अन्तरिक पीड़ा बाह्र पीड़ा बन जाती
बाह्र पीड़ा अन्तरिक पीड़ा रूप ले लेती
व्यक्ति को जब पूर्वाअभास होता
जीवन का दिन कुछ शेष रहते !
क्या बौद्ध का कहा ही पूर्ण सत्य है
जीवन दु:खों से भरा पड़ा है
सुख का कहीं नामोन्शान नहीं
मोक्ष ही अंत है पुन: दु:ख से बचने का
तो ये जीवन का एक पक्षीय सत्य है!
मैं मानती हूँ जीवन में संधर्ष और बाधाएं है
पर दु:ख में रहते ही सुखों की तलाश
जीवन उदेश्य है
तभी इन्सान को आनंदवाद की प्राप्ती होगी
आओ इस आनंदवाद को ढूँढे खुद में!
— कुमारी अर्चना