कविता : मैं साहित्य का नन्हा कुकुरमुत्ता हूँ
मैं साहित्य का नन्हा सा
कुकुरमुत्ता कवयित्री हूँ
मुझे पेड़ बनते देर ना लगेगी
पर शेष बचूँगी तक ना!
चाटुकारता करूँगी कभी कागज पे
फोटो बन चिपकने के लिए
कभी मंच पर मुँह दिखाने के लिए
तो रचनाओं को छपवाने के लिए!
बिक जाऊँगी इन्हें संभालने में
नाम होना तो दूर रहा
नाम सामने लाने के लिए भी
धन खर्च करना होगा
तो कभी तन
मन की यहाँ आवश्यक नहीं
वो केवल साहित्य लेखन के लिए …
मैं निराला का कुकुरमुत्ता नहीं हूँ
जो विदेशी सत्ता से
भारत की आजादी के लिए संधर्ष करें
तो कभी गुलाब से लड़ मरे!
मैं यहाँ खुद के अस्तित्व के लिए
संधर्ष कर रही हूँ!
मैं साहित्य की बिसाद पे
नन्हीं सी प्यादी हूँ
संर्धष कर भी तब तक ना जीतूँगी
जब तब वजीर के इशारे पे ना चलूँगी
पर ये वजीर कौन है
साहित्य सिखाने वाले गुरू
बाजार व्यवस्था
मिडिया नियंत्रक
राजनीति के सर्वेशर्वा या
साहित्य समाज के कर्ताधर्ता !
— कुमारी अर्चना