“रतिलेखा छंद”
अब तो गिरिवर दरशन, चित हमारौ
मनवा हरसत विहरत, हरि निहारौ।
पहुना सम दिखत सबहिं, पग पखारौ
हम सेवक तुम रघुबर, गृह पधारौ।।
अपना सब कुछ अरपन, तव सहारौ
विधना नयनन चितवत, छवि तिहारौ।
अपने कमल चरन महि, अब जगा दौ
सुन लो विनय अवधपति, तम भगा दौ।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी,