“मुक्त काव्य”
परिंदों का बसेरा होता है
प्रतिदिन जो सबेरा होता है
चहचाहती खूब डालियाँ हैं
कहीं कोयल तो कहीं सपेरा होता है
नित नया चितेरा होता है
पलकों में घनेरा होता है
परिंदों का बसेरा होता है
प्रतिदिन जो सबेरा होता है॥
हम नाच बजाते अपनी धुन
मानों थिरकाते गेंहू के घुन
प्रति रोज निवाले पनपाते
कभी चुनचुनते गाते गुनगुन
अहसास अनेरा होता हैं
विश्वास गहेरा होता है
परिंदों का बसेरा होता है
प्रतिदिन जो सबेरा होता है॥
उठ उठकर लोग बैठ जाते
चल चलकर पथिक ऐंठ जाते
लगती राहों को धूप छाँव
अनजाने शहरों में पैठ जाते
मन प्यास पनेरा होता है
चाहत का चहेरा होता है
परिंदों का बसेरा होता है
प्रतिदिन जो सबेरा होता है॥
नित भाग दौड़ में खो जाते
जो मिला उसी के हो जाते
अपनों की पाती पढ़ पढ़कर
पकड़े बूंदों को रो जाते
घर घर जंजाल बखेरा होता है
निशदिन भरम भूख का घेरा होता है
परिंदों का बसेरा होता है
प्रतिदिन जो सबेरा होता है॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी