सामाजिक

लेख–कचरा बीनते बच्चे क्यों नहीं बनते चुनावी चर्चा का विषय

सड़कों पर घुमते बच्चों को क्या नाम दें, लेकिन यह भी एक बदलते भारत की तस्वीर है, जिस ओर एयरकंडीशन में बैठी हमारी लोकतांत्रिक राजशाही व्यवस्था शायद देखना नहीं चाहती। इनका अपना कोई ठिकाना भी नहीं होता, कभी कोई फुटपाथ जिन बच्चों का बिस्तर, फ्लाईओवर जिनका छत और किसी तरह भूख शांत करना जिनका दैनिक उद्देश्य होता है, उनकी तरफ शायद हमारी व्यवस्था ने कानून बनाने के बाद कभी झांकने की कोशिश की ही नहीं। यह बदलते देश का नया वर्तमान औऱ बिता लोकतांत्रिक भूत रहा है। पढ़ने-लिखने की उम्र में कचरे के ढ़ेर से कचरा उठाते बच्चे, अख़बार, फूल, कलम बेचते बच्चे, कलाबाजियां दिखाते भारत का भविष्य वर्तमान में कहीं भी दिख जाएगा। केवल पेट भरने के सिवाय अन्य जिम्मेदारियों से उनके माता-पिता भी मजबूरीवश पल्ला झाड़ लेते हैं, तो सरकारें भी अच्छे दिन बहुरने का वादा कर अपने सामाजिक कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती है। ऐसे में लगता यही है, क्या लोकतंत्र में इन बच्चों के लिए कोई जगह नहीं क्या। सवालों की फेहरिस्त फ़िर लंबी हो जाती है, लेकिन शायद नीति-नियंत्रणकर्ता ही इन प्रश्नों के उत्तर ढूढ़ने की कोशिश नहीं करते, क्योंकि वोटबैंक की राजनीति के वे बच्चे हिस्सेदार नहीं होते। वरना शायद उनकी मलिन दशा और दिशा देखकर भारतीय राजनीति को शर्म आती, और उनके लिए भी कोई न कोई सरकारी योजनाओं का क्रियान्वयन होता। जैसा कि लैपटॉप, और मोबाइल रूपी लॉलीपॉप 10वीं और 12वीं के छात्रों के लिए बांटा जाता है।

इन सडक़ के बच्चों की संख्या मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार दस लाख, तो वहीं गैर सरकारी संगठनों डॉन बॉस्को नैशनल फोरम और यंग एट रिस्क की ओर से देश के 16 शहरों में 2013 में कराए गए सर्वेक्षण के अनुसार महानगरों में सबसे ज्यादा बच्चे फुटपाथों पर रहते हैं। जिनके अनुसार दिल्ली में सबसे ज्यादा 69976 बच्चे , मुंबई में 16059, कोलकाता में 8287 ,चेन्नई में 2374 और बेंगलूरु में 7523 बच्चे फुटपाथ पर रहते हैं। ये चंद उदाहरण हैं, यह स्थिति पूरे देश की शायद है ही नहीं। स्थितियां इससे बदत्तर होगी। क्या इनको अपने अधिकारों के हिस्से का 5 फ़ीसद भी हक़ देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के मूल्यों की बात करने वाली रहनुमाई व्यवस्था दिला पाई। बच्चा कोई भी हो, चाहे गरीब या अमीर। वह देश की अनमोल धरोहर होता है, जिसके कंधों पर ही देश का भविष्य अड़िग होता है, लेकिन अफसोस कि वास्तविक परिदृश्य में आज़ादी के सत्तर वर्षों में राजनीति ने इन बच्चों के लिए शायद शून्य बाटे सन्नाटा के बराबर ही काम कर सकी है। कहते हैं न, भूखे पेट भजन न हो गोपाला, जब देश से भुखमरी, और कुपोषण मिट ही नहीं रहा। फ़िर शिक्षा के अधिकार से क्या मिला, वह इस कहावत से समझा जा सकता है। हाथ कंगन को अरसी क्या, पढ़े-लिखे को फ़ारसी क्या। वैसे कर्तव्यों से मुख तो हमारा समाज भी मोड़ रहा है, वह इन बच्चों को रुपए एक की भीख देकर ही अपनी सामाजिक और नैतिक जिम्मेवारियों से छुटकारा पा लेता है, यह रवायत भी उचित नहीं। अब जब चुनावी धुन भले ही राज्य चुनावों की बज चुकी है, तो क्या राजनीति बच्चों के अधिकारों के बारे में बात करने की सार्थक पहल करेगी। यह देखने वाला विषय होगा।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896