इंसानियत की देवी
मुनिया अपनी प्रथम प्रसवपीड़ा झेल पाने में असमर्थ अस्पताल के फर्श पर दोहरी हो गयी थी । रघु अपनी पत्नी की पीड़ा को महसूस कर रुआंसा सा हो गया था लेकिन पैसे के अभाव में वह मजबूर था । अस्पताल की परिचारिकाएँ व अन्य कर्मी आते जाते उनकी तरफ उपेक्षा से देखते और आगे बढ़ जाते । किसी जल बिन मछली की तरह तड़पती मुनिया की स्थिति और गंभीर होती जा रही थी कि तभी अस्पताल में मुन्नीबाई ने प्रवेश किया । ” हाय राम ! ये बच्ची दर्द से तड़प रही है और कोई देखनेवाला नहीं ? ” कहते हुए मुन्नीबाई उसके पास ही बैठ गयी । उसके बालों को प्यार से सहलाते हुए बोली ” घबराना नहीं बेटा ! मैं सब ठीक कर दूंगी । ” अगले ही पल नजदीक से गुजर रही नर्स का रास्ता रोककर उसने उसे मुनिया को उठाकर लेबर रूम में दाखिल करने को मजबूर कर दिया । डॉक्टर के सामने नोटों की एक गड्डी रखते हुए वह अपना दुख भुल चुकी थी ।
समाज की नजरों में गिरी हुई और वेश्या कही जानेवाली मुन्नीबाई आज अचानक रघु की नजरों में इंसानियत की देवी बनकर प्रकट हुई थी ।
प्रिय ब्लॉगर राजकुमार भाई जी, इंसानियत न जाने किस में, कब, कहां दिख जाए, कुछ पता नहीं. उसे अस्पताल के स्टॉफ में दिखना था, पर दिखी मुन्नीबाई के मन में. अत्यंत समसामयिक, सटीक व सार्थक रचना के लिए आपका हार्दिक आभार.
आदरणीय बहनजी ! आपने बिल्कुल सही फरमाया है इंसानियत कब कहाँ किस रूप में दिख जाय कोई नहीं जानता । मुन्नीबाई के रूप में एक इंसानियत की देवी का दर्शन ही हुआ था रघु को । बेहद सुंदर प्रतिक्रिया के लिए आपका धन्यवाद ।
वेशिआओ को लोग बुरी नज़र से देखते हैं लेकिन वेश्य में भी दिल होता है और कई तो फरिश्ते बन कर आती हैं .लघु कथा बहुत अछि लगी राजकुमार भाई .
आदरणीय भाईसाहब ! सही कहा आपने ! वेश्याओं को लोग बुरी नजर से देखते हैं लेकिन उनके अंदर भी दिल होता है । इस कहानी में मुन्नीबाई भी ऐसी ही है । बेहद सुंदर प्रतिक्रिया के लिए आपका धन्यवाद ।