शासन करने की कला
कुछ जवाहर लाल नेहरू की बेटी होने और कुछ दबंग महिला होने के कारण इंदिरा गाँधी भारत के भोले-भाले नागरिकों द्वारा लगभग देवी सी पूजी गयीं। जनता उनसे अपार प्रेम करती थी, और 1977 जैसा इंदिरा-विरोधी माहौल न बने होने की दशा में उनके चुनाव जीतने की क्षमता असंदिग्ध थी, पर शासन करने की उनकी क्षमता निस्सन्देह संदिग्ध कही जायेगी।
चुनाव जीतने के बाद शासन करने की उनकी क्षमता सिर्फ़ तीन साल की थी, जिसे उन्होंने दो बार सिद्ध किया।
1971 में गरीबी हटाओ के नारे के साथ सत्ता में आने के कुछ ही महीनों में बांग्लादेश की लड़ाई ने इंदिरा गाँधी को लगभग देवी से सम्पूर्ण देवी बना दिया, पर जल्द ही देश में असंतोष बढ़ने लगा, और 1974 बीतते-बीतते परिस्थिति नियंत्रण से बाहर हो गयी, और जल्द ही देश में इमर्जैंसी लगानी पड़ी।
इसी तरह 1980 में मिली जबरदस्त जीत के बाद 1983 आते-आते फिर से परिस्थिति हाथों से छूटने लगी। पंजाब में उग्रवादी बेलगाम हो गये, नेल्ली (असम) में भीषण नरसंहार हुआ, और आंध्र में निहायत बेशर्मी के साथ पूर्ण बहुमत रखने वाली रामाराव सरकार बर्खास्त कर दी गयी। जल्द ही ऑपरेशन ब्लूस्टार की नौबत आ गयी जो अन्ततोगत्त्वा उनकी मृत्यु का कारण बना। अक्टूबर ’84 में अपनी मृत्यु से ठीक पहले वह अपनी लोकप्रियता के निम्नतम बिंदु पर थीं, और अधिकांश राजनीतिक पंडितों की राय है कि ’85 का चुनाव निकालना उनके लिए असम्भाव्य (improbable) रहा होता।
यह उदाहरण इस बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि लोकप्रियता की लहर पर सवार होकर जबरदस्त बहुमत से सत्ता में आने के बाद शासन चलाने की श्रीमती गाँधी की क्षमता मात्र तीन सालों की थी,जिसके बाद हालात इतने बिगड़ जाते थे कि उन्हें सँभालने के लिए असाधारण फ़ैसले (इमरजेंसी, ब्लूस्टार आदि) करने पड़ते थे।
लोकप्रियता और उसके बल पर बार-बार चुनाव जीतने की क्षमता के मामले में मोदी ने इंदिरा गाँधी के आस-पास भी कहीं होने का आभास भी नहीं दिया है, पर शासन को सफलतापूर्वक सँभालने के मामले में वह श्रीमती गाँधी से निश्चित रूप से आगे निकल गये हैं। उन्हें केंद्र की सत्ता में आये साढ़े तीन साल हो गये हैं, और देश में उनके खिलाफ़ कोई बड़ा असंतोष नहीं सुलग रहा है। इस तरह के सभी सर्वेक्षण उन्हें अब भी देश का सबसे भरोसेमंद नेता बताते हैं।
— अनिल कुमार सिंह
गलत आकलन । आपके पैमाने के मुताबिक अभी तो मोदीजी मनमोहन के करीब भी नहीं पहुंचे हैं । मसनमोहन के प्रति असंतोष होता तो 2009 में वह पहले से 50 सीटें ज्यादा नहीं जीतते ।