लेख– जब हावी है वंशवाद, फ़िर दिखावे का आंतरिक लोकतंत्र क्यों?
गांधी परिवार में पीढ़ी दर पीढ़ी लोकतांत्रिक पार्टी का हस्तांतरण, और दिखावे का चुनावी मुलम्मा। क्या यही देश की राजनीतिक पार्टियों के भीतर नैतिकता और आंतरिक लोकतंत्र की निशानी बची है। या परिवारवाद से ही सुयोग्य नीति-नियंता की खेती-बाड़ी होनी शुरू हो गई है, बाक़ी बिना राजनीतिक परिवार के लोगों में राजनीति और शासन चलाने का गुण नहीं? यह यक्ष प्रश्न है। मोतीलाल नेहरू से शुरू हुई राजनीतिक विरासत आज जवाहरलाल नेहरू से होते हुए सोनिया गांधी आदि को समेटते हुए राहुल गांधी के हाथ मे जा रही है। ऐसे में बात अगर राजनीति में परिवारवाद की सडांध व्यवस्था को पैदा करने की भगीरथी है, तो वह 1885 में गठित कांग्रेस ही है। जिसका ज़हर आज के दौर में उड़ीसा से कश्मीर तक पहुँच चुका है। बिहार से आंध्रप्रदेश तक फैल गई है। आज के दौर में इस सडांध से अछूत कोई नहीं। फ़िर मात्र एक को लोकतंत्र में बदनाम करना भी शायद उचित नहीं। अगर सोनिया गांधी की बात की जाए, तो वे 1998 से देश की सबसे प्राचीन पार्टी की अध्यक्ष रही हैं। आज के वक्त में कांग्रेस के समक्ष लगातार चुनाव हारने से बचाना, वह भी उस वक़्त जब मोदी बूम देश नही विदेशों तक है, बडी चुनौती होगी।
बीते कुछ वर्षों जिस हिसाब से बीजेपी का कांग्रेसी करण हुआ, उससे कांग्रेस के भीतर अच्छे नेताओं की कमी होती जा रही है, और अभी भी कुछ असन्तोष की भावना राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने के बाद भी उभरेगा। तो राहुल गांधी के समकक्ष नए नेतृत्व को तैयार करना चुनौती पूर्ण कार्य होगा। उसके साथ कांग्रेस जाति, धर्म की राजनीतिक के बने-बनाए रास्ते पर चल रही है, वहीं बीजेपी सर्वसमाज को लेकर चलने का हुंकार भरती है, फ़िर चुनाव जीतने के लिए नए विचारों और प्रयोगों पर ज़ोर देना मुश्किल कार्य होने वाला है। गांधी गरीब और दलित की थाली का हिस्सा भले बनते हो, लेकिन उनके पास उनके उत्थान के लिए कोई तरीका और सलीका दिखता नहीं। फ़िर कांग्रेस के युवा की समस्याएं कम रहने वाली दिखती नहीं है।
उन सब के इतर बात राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने से वंशवाद की जो बहस छिड़ रही है, उस पर जनमानस को ध्यान देना होगा। और राहुल के अध्यक्ष बनने से पहले कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने एक मुद्दा छेड़ा है, उस पर स्वस्थ बहस शायद वर्तमान समय मे लोकतंत्र की बेहद ज़रूरती बात है। कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने राजनीति में उत्तराधिकार को आसानी से वंशवाद का नाम दिए जाने का जो विषय उठाया वह अतिश्योक्ति नहीं कहा जा सकता। उससे बड़ी बात क्या देश में कभी वंशवाद पर सटीक बहस हुई? तो उत्तर मिलना मुश्किल हो जाएगा। वंशवाद की भगीरथी कांग्रेस है, लेकिन इस प्रथा से अछूता कौन सा प्रदेश है, आज के गणतन्त्रात्मक देश में। कहां और किस पार्टी का ज़िक्र किया जाए। फेहरिस्त आज़ादी के बाद से काफ़ी लम्बी- चौड़ी हो चली है, जिसका खाका तैयार करना बच्चों का खेल दिखता नहीं। फ़िर भी परिवारवाद को बढ़ावा देने वाले कुछ राजनीतिक दलों का ज़िक्र करते हैं। उत्तरप्रदेश में मुलायम सिंह यादव के लगभग 15 से ज़्यादा सदस्य राजनीति में सक्रिय रह चुके हैं। भाजपा जो कांग्रेस पर वंशवाद खड़ा करने का आरोप लगाती है, उसके राष्ट्रीय नेतृत्व के साथ राज्य स्तरीय नेतृत्व में भी वंशवाद के छीटे जरूर पड़े हैं। मध्यप्रदेश , राजस्थान, छतीसगढ़, उड़ीसा, हरियाणा और पंजाब कोई भी राज्य शायद इस रोग से बच पाए हो। राजनाथ सिंह के बेटे पंकज सिंह, हिमाचल में प्रेमकुमार धूमल के बेटे अनुराग ठाकुर, जम्मू में अब्दुल्ला परिवार। हरियाणा में भी परिवारवादी राजनीति ने प्रश्रय प्राप्त किया। पंजाब में बादल परिवार। दलों की बात करें, तो राजद, नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल यहां तक अब बहुजन समाजवादी पार्टी की मुखिया मायावती भी अपने भाई और भतीजे को राजनीतिक वंशवाद से सिंचित करती दिखती हैं।
ऐसे समय में जयराम रमेश ने इस मुद्दे को जब राजनीति में वंशवाद का मुद्दा छेड़ा है, तो क्या राजनीति के सभी सियासतदां अपने पारिवारिक प्रतिनिधित्व के बढ़ते प्रभाव को स्वीकार करेगें। मात्र एक दल पर आरोप लगा देने से इस समस्या की जड़ें हिलने वाली भी नहीं है। ऐसे में अगर परिवारवाद को राजनीति से ख़त्म करना है, तो कोई कानून या सार्थक कदम की ओर बढ़ा जाए, नही तो वैसे किसी राजनीतिक घराने से होना अपराध नहीं, और न उससे लोकतांत्रिक भावना प्रभावित होती है। शायद यही बात जयराम रमेश भी कहना चाहते हैं, जो एक दृष्टि से जायज़ भी है, क्योंकि वंशवादी व्यवस्था के दोषी आज सभी दल दिखते हैं। जिस प्रकार सामान्य नागरिक स्वतंत्रता पूर्वक कुछ भी पेशे को अजमाने को स्वतन्त्र है, उसी तरह राजनीति से जुड़े परिवार के सदस्य भी। फ़िर व्यर्थ का चुनावी तिकड़म और गोटी बैठाने की राजनीति बंद होनी चाहिए। आज की राजनीति का कड़वा सत्य यही है, अपने घर की बुराइयां किसी को दिखती नहीं। दूसरी बात नेताओं के घर के सदस्य के आने से न लोकतांत्रिक अधिकार का हनन होता है और न मौलिक अधिकारों का। यह भी सच्चाई है, उससे बड़ी सच्चाई यह है, कि वंशवाद का कड़ा प्रतिकार जनमत के सिपाहियों को देना होगा, तभी इन परिवारवाद के पोषकों की नींद हराम हो सकती है, क्योंकि आज परिवारवाद का मुद्दा केवल चुनाव में मत को भुनाने की कोशिश विपक्षी दल करते हैं। इस प्रथा को बंद करना होगा।
इसके साथ कुछ नियम भी निर्धारित संसद के रखवालों को करनी ही होगी, क्योंकि मात्र नेता का पुत्र ही नेता बने, यह स्वतंत्र और स्वस्थ लोकतंत्र के लिए सही नहीं। इससे लोकतांत्रिक व्यवस्था में स्थापित संविधान में वर्णित समता और अवसर की समानता पर चोट है। उसके साथ अगर सत्ता और पार्टी पर कुछ परिवार का ही दबाव रखना है, फ़िर संविधान की मूल भावना में कुछ बदलाव कर कुलीन व्यवस्था पर मोहर लगा दी जाए। एक तथ्य और जब गांधी परिवार में अध्यक्ष का पद वर्षों से कुलीन व्यवस्था का ही हिस्सा रहा है, फ़िर चुनावी प्रपंच की बात किस लिए? राजनीति में सभी हमाम जब एक जैसे हैं, फ़िर दिखावा किस बात का। हां रही बात अगर लोकतंत्र को मजबूत बनाना है, मजबूर नहीं, तो राजनीति में एक ही परिवार के कितने सदस्य हो सकते हैं, उसकी बंदिशों पर भी ध्यान दिया जा सकता है। हां लेकिन क्या कोई पार्टी आज के दौर में परिवारवाद पर पाबंदी के लिए कठोर कदम उठाता दिख रहा है, तो उसका उत्तर तो शायद राजनीतिक दलों के पास भी नहीं।