प्रलय आ जाता है
जब हवाये संदेश नहीं ले जाती
तुम तक पैगाम नहीं पहुचाती !
गुस्सा आता है बहुत मुझे
जब तुम्हे मेरे पास नहीं लाती !
रूठ जाती हुं अक्सर जब भी
तेज झोंके से मुझे डराती है !
सहम जाती हुं मैं तब
और तुम्हारी याद बहुत सताती है !
ये बैरन हवा ! मुझ पर हंसती है
मुझे जोगन बताती है !
इसे क्या पता प्रीत होती क्या है नूतन
ये जरिया है जो तुमतक संदेश पहुचाती है !
जी तो करता है इसे कैद करके रखदुं कहीं
जब भी ये बिना पैगाम के लौट आती है !
अगले ही पल ठहर जाती हुं मैं सोचकर
यही एक उम्मीद है जो मेरा प्रेम तुम तक पंहुचा सकती है
ना जाने कैसी दुश्मनी है इसकी मुझसे
तुमको करीब क्युं ? नहीं लाती है !
वो तो कान्हा बन रासकर रहा है
रोज़ कानों में ताने कस जाती है
ऐसी क्या मज़बूरी, ऐसी क्या लाचारी ?
जो तुमको मेरे पास आने नहीं देना चाहती है !
मैं जानती हुं प्रिय
मेरा संदेश तुम तक पंहुचा जरुर होगा,
लेकिन
ये सौतन सी हवा
तुम्हारा संदेश मुझतक नहीं पहुचाती है !
— जयति जैन “नूतन”