लेख– असुविधाओं से भरे देश में प्रतिभा का कुंद होना स्तब्ध नहीं करता
एक शिक्षक, एक किताब, और एक बच्चा पूरी दुनिया को बदलने की क्षमता रखता है। बशर्ते अवसर की उपलब्धता हो। आज देश की व्यवस्था शायद इन तीनों के आस-पास ही किसी न किसी कारणवश घूम रही है। वर्तमान सरकार जो दो करोड़ रोजगार उपलब्ध कराने का दावा करके सत्तारूढ़ होती है, उसको उपलब्ध कराने में वह विफल होती है। एक फ़रमान के द्वारा देश भर में एक जैसी शिक्षा देने की बात की जाती है। उसके इतर देश में शिक्षकों और शिक्षा की मंदिर कहे जाने वाले स्कूलों और महाविद्यालय की स्थिति किसी से छिपी दिखती नहीं। ऐसे परिवेश में जब देश भर में एक जैसी शिक्षा देने का मुलम्मा खड़ा किया जा रहा है, और शिक्षकों का कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व क्या होता है, सरकारे निर्धारित नहीं कर पा रहीं, फ़िर बहुतेरे सवाल ख़ड़े होते हैं। पहला सवाल जब शिक्षा मानव विकास की पहली सीढ़ी होती है, फ़िर सरकारी स्कूलों और विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की कमी क्यों भरी नहीं जाती? आख़िर देश की शिक्षा व्यवस्था को ठेकेदारी व्यवस्था पर कब तक चलाया जाएगा? आज की युवा पीढ़ी अनपढों की फ़ौज से अगर पढ़ेगी, तो योग्य शिक्षकों की परिकल्पना भविष्य में भी नही की जा सकती। आज के दौर में जो संविदा शिक्षकों की प्रक्रिया बढ़ रही है, वह छात्रों और शिक्षकों दोनों के लिए नुकसानदेह साबित हो रही है। कई विश्वविद्यालयों और महाविद्यालय में तो शिक्षा का स्तर औंधे मुंह गिर पड़ा है। जिसका कारण योग्य शिक्षक का न होना, शिक्षको की नियुक्ति समय पर न होना और नियुक्ति प्राप्त शिक्षकों में विषय-विशेज्ञता हासिल न होना है।
बात चाहे स्कूली शिक्षा की हो, या उच्च शिक्षा की हो, देश की शिक्षा व्यवस्था रोजगार मुहैया कराने में असमर्थ दिख रही है। जिस रोग से छुटकारा दिलवाने से इतर देश मे शिक्षण संस्थानों के नाम परिवर्तन और शिक्षकों से खुले में शौचालय करने वालों पर निगरानी रखने का काम करवाया जा रहा है, फ़िर देश अगर विश्व प्रतिभा रैंकिंग में लगभग 50 देशों से पीछे आता है, तो उसमें अचंभित होने की कोई बात नहीं होनी चाहिए। आज शिक्षा रोजगार का साधन नहीं बन पा रही तो उसके कुछ विशेष कारण हैं, जो निम्नलिखित हैं। पहला शिक्षकों की कमी, दूसरा शिक्षा में प्रयोगात्मक दृष्टि का दूर होना, औऱ तीसरा विश्वविद्यालय और महाविद्यालय में संसाधनों की भरी कमी। ऐसे में अगर देश की कोई यूनिवर्सिटी शीर्ष 50 या 100 विश्व स्तर की यूनिवर्सिटी में जगह न बनाए, तो दोष देश की रहनुमाई व्यवस्था और शिक्षा के लिए नीतियां बनाने वालों की ही है। अब जब सरकार देश के सभी संस्थानों में एक जैसी शिक्षा व्यवस्था लागू करने का विचार कर रहीं है, तो क्या शिक्षा में एकात्मकता लाने की आवश्यकता है, या फ़िर शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार लाने की दिशा में प्रयासरत होना चाहिए था। यह सोचनीय विषय है। जब एक समान शिक्षा का मसौदा तैयार करने की बात है, तो पहले गौर देश की शिक्षा व्यवस्था और संस्कृति पर होना जरूरी है। पहली बात आज़ादी के बाद से आज तक शिक्षा को लेकर सार्थक और गम्भीर बहस अभी तक देश में हुई नही, दूसरी बात स्कूली शिक्षा जो है, वह राज्य सरकारो के अधीन का विषय है। अभी तक मातृभाषा में शिक्षा उपलब्ध कराना सर्वश्रेष्ठ तरीका माना गया है। फ़िर एक समान शिक्षा देना जरूरी है, या फ़िर रोजगारपरक और संसाधनों युक्त शिक्षा, यह हमारे लोकतंत्र के रखवालों को विचार-विमर्श करना चाहिए। रहीं बात विज्ञान, गणित जैसे विषयों की तो उसमें बदलाव की कोई गुंजाइश है नहीं, बल्कि उनका दायरा निर्धारित किया जा सकता है, कि क्या छात्र जीवन को सफ़ल बनाने में सार्थक भूमिका निभा सकता है, उसको शामिल किया जा सकता है।
रही बात सामाजिक, साहित्य और इतिहास की किताबों की, तो जब देश ही वैचारिक द्वंद्वात्मक परिस्थितियों से कुछ वर्षों से गुजर रहा है, फ़िर यह इतिहास और अन्य विषयों से खिलवाड़ के अलावा कुछ साबित हो नहीं सकता। इससे न बच्चों का भला होगा, न रोजगार आदि की गंगा समान एक जैसी शिक्षा उपलब्ध कराने से हो सकेगी। आज सरकारी शिक्षण संस्थान घोर उपेक्षा के शिकार हो चले हैं, और निजी या व्यावसायिक शिक्षण संस्थानों की चांदी हो चली है। सरकारी स्कूलों में बच्चे घोर अंधकार के साए में जाते दिख रहें हैं। एक तरफ़ नाम परिवर्तन की सियासी जल्दबाजी और दूसरी तऱफ असुविधाओं का अंबार। क्या ऐसे में देश की शिक्षा व्यवस्था और यूनिवर्सिटी विश्व परिदृश्य पर अपना परचम लहराना चाहती है, तो शायद यह नामुमकिन ही है। आज सरकारी संस्थाओं की स्थिति मलिन हो चुकी है, जिसमें सुधार के लिए काफ़ी ख़र्च की आवश्यकता है, लेकिन हमारी व्यवस्था संस्थाओं के नाम परिवर्तन और किताबों से खिलवाड़ करके ही शिक्षा को रोजगार दायनी बनाने पर तुली है। विकसित देश जहां शिक्षा की गुणवत्ता और उस पर ख़र्च पर ध्यान देती हैं, वहीं आज तक हमारी नीति-नियंत्रण करने वाले जो शिक्षक हैं, उनका क्या कार्य होना चाहिए। उसको निर्धारित नही कर पा रही। फ़िर बेरोजगारो की फ़ौज देश में तैयार होना स्वाभाविक बात है।
बिहार में एक सरकारी फ़रमान निकालता है, कि शैक्षणिक कार्यों के अलावा सूबे के शिक्षक इस बात की निगरानी रखेंगे, कि खुले में शौच तो कोई कर नहीं रहा।
यह स्थिति लगभग पूरे देश की है। शिक्षकों की बेबसी का फायदा राजनीतिक तंत्र आजादी के वक्त से ही लेता रहा है। क्या हमारे समाज में शिक्षकों का दायित्व जानवरों की गिनती करना, मेले में ड्यूटी करना, प्याज की सरकार की तरफ़ से खरीदी करना और तो और शौचालय के लिए गड्ढे खुदवाने का ही बचा है। वास्तव में यह स्थिति बहुत ही दयनीय है। उसके साथ शिक्षा को लेकर सरकारी स्तर के विजन को व्यक्त करती है, कि सरकारों की प्राथमिकता में शिक्षा है, कहाँ? आज के डिजिटल, और नव निर्माण भारत के दौर में मध्यप्रदेश के सरकारी स्कूलों की स्थिति यह है, कि कहीं पर स्कूल पेड़ के नीचे चल रहा है। तो कहीं सार्वजनिक भवन में । और तो और देश का सबसे पिछड़ा जिला अलीराजपुर भी वहीं है, जहां शिक्षा का सरकारी पैमाना ही किसी तरह थर्ड विजन मार्क्स के साथ पास हो पाता है। उसके पश्चात भी शिक्षा को लेकर बड़े बड़े वादे किए जाते हैं। तो आज ऐसे में सवाल तो बहुतेरे हैं, लेकिन जवाब किसी के पास नहीं। और तो और जवाब देने में मुँह लोकशाही व्यवस्था के हुक्मरान भी चुरा रहें हैं। क्या सरकारी स्कूलों को मूलभूत सुविधाएं मुहैया हो पाई है? क्या शिक्षा रोजगार निर्माण का साधन बन पाई है? क्या सरकारी स्कूल की शिक्षा पर विश्वास किया जा सकता है? क्या शिक्षकों की कमी दूर हो गई? इन प्रश्नों के उत्तर किसी के पास नहीं। फ़िर देश भर के आला अफ़सर और व्यवस्था शिक्षकों की नियुक्ति कैसे जनगणना करने, और शौचालय के लिए गड्ढे खोदने के लिए कर देती है? यह बेहद सोचनीय मुद्दा बन जाता है।
जिस देश की 65 फ़ीसद आबादी नौजवान हो, वह देश विश्व प्रतिभा के क्षेत्र में 51वें स्थान पर आता है, मतलब साफ़ है, देश मे प्रतिभा को निखारने की छड़ी ही गायब हो चली है। वह एक हद तक सही भी है, जहाँ देश में 14 लाख शिक्षकों का अकाल है, वहीं स्कूलों और विश्वविद्यालयों तक संसाधनों से वंचित दिखते हैं। फ़िर प्रतिभाओं का उन्नयन कैसे हो सकता है? शिक्षा किसी भी देश के विकास की वाहक होती है, इसलिए देश में शिक्षा को मूलभूत अधिकारों में शामिल किया गया है। लेकिन वोटबैंक की सियासत से शायद हमारी शिक्षा व्यवस्था पीड़ित है, नहीं क्या मतलब शुरुआती शिक्षा में आठवीं तक न फ़ेल करने की, रुक जाना नहीं जैसी स्कीम बनाने और शिक्षा बजट का रोना रोने की। देश में शिक्षा का स्तर किस क़दर निचले पायदान की तरफ़ बढ़ रहा है, उसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है, कि शिक्षा रोजगार का सृजन का साधन नहीं बन पा रही है। तभी तो 9000 पटवारी का पद मध्यप्रदेश में हाल ही में निकलता है, और फ़ॉर्म 10 लाख से अधिक युवा भरते हैं। यानि देश बेरोजगारी की खान बनता जा रहा है। इसके अन्य उदाहरण उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल से भी देखे जा सकते हैं। उत्तरप्रदेश में 368 पद पर भर्ती बीते कुछ वर्ष पहले निकलती है, और उस नौकरी की चाहत 23 लाख युवाओं में होती है। यहीं कुछ हाल पश्चिम बंगाल में होता है, जब 600 पद के लिए 25 लाख आवेदन आते हैं।
तो क्या अब जब एक जैसी शिक्षा पूरे देश में उपलब्ध कराने की बात हो रही है, उससे पहले शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव की बयार बह सकती है, जिसकी ज़रुरत शिक्षण संस्थानों के नाम बदलने और किताबी पाठ में परिवर्तन से पहले महसूस की जा रही है। क्योंकि आज भी देश में तमाम आयोग और कानून के बाद 28.7 करोड़ लोग अशिक्षित है। इनको शिक्षित करने से पहले शिक्षा को रोजगार सृजन के क़ाबिल भी बनाने पर जोर होना चाहिए, नहीं तो पढ़े-लिखे बेरोजगारी की भट्टी ही बनकर देश रह जाएगा। जब शिक्षा के क्षेत्र में समस्याएं काफ़ी है, और देश विकसित अवस्था में जाने का हुंकार भरता है। फ़िर शिक्षा बजट पर मात्र 3 फ़ीसद ख़र्च क्यों। क्या देश की युवा पीढ़ी का देश की व्यवस्था में कोई महत्व नहीं। जब अमेरिका अपने जीडीपी का 6 फ़ीसद शिक्षा और शोध पर ख़र्च करता है। फ़िर हमारा देश शिक्षा को रोजगार के लायक़ बनाने के लिए शिक्षा व्यवस्था में बदलाव करता क्यों नहीं दिखता। नॉर्वे 6.5 फ़ीसद, इजरायल 6.5 फ़ीसद, क्यूबा 12.6 फ़ीसद और उत्तर कोरिया जैसा देश अगर शिक्षा पर 6.2 फ़ीसद जीडीपी का हिस्सा ख़र्च करता है। फ़िर हमारे देश में शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति लाने का विचार कब आएगा। जब 20 फ़ीसद शिक्षक ही एनसीटीई के मानक पर खरे नहीं उतरते औऱ शिक्षण संस्थान की हालत पतली है, फ़िर प्रतिभाओं का कुंद पड़ जाना देश में स्वाभाविक है।