ये देखो मेट्रो का खेल
नीचे मोटर ऊपर रेल,
ये देखो मेट्रो का खेल।
कभी चले धरती के अन्दर,
और कभी धरती से ऊपर।
कभी कहीं धरती पर चलकर,
पहुँचाती सबको मँजिल पर।
ऑटो-मेटिक सब सिस्टम हैं,
और सुरक्षित इसमें हम हैं।
सर्दी गर्मी और धूप से,
झम-झम वर्षा लू प्रकोप से।
हमको सदा बचाती रहती,
मँजिल तक पहुँचाया करती।
दरवाजे खुद खुल जाते हैं,
यात्री बाहर आ जाते हैं।
बन्द द्वार हों तब चलती है,
एसी की सुविधा मिलती है।
नीचे से ऊपर तक जाओ,
ऊपर से नीचे आ जाओ।
और लिफ्ट फर्राटे भरती,
वृद्धजनों की सेवा करती।
धुँआ नहीं है, शोर नहीं है,
और स्वच्छता कहाँ नहीं है।
सोलर-सिस्टम से अब चलती,
विजली बचती कमी न खलती।
जीवन-डोरी बड़े नगर की,
हर मुश्किल हल करे डगर की।
सस्ता भाड़ा सुविधा ज्यादा,
ये भैया मेट्रो का वादा।
…आनन्द विश्वास