लेख– नाम बदलने से पहले शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार जरूरी
देश एक नए आयामी दौर से गुज़र रहा है। जिसमें राष्ट्रवाद की संकल्पना गहरी पैठ तो बना रही ही है, उसके साथ शिक्षण संस्थानों आदि के नाम परिवर्तन की बयार भी बह चली है। ऐसे में चर्चा जरूर होनी चाहिए, एक मजबूत और सशक्त राष्ट्र बनता कैसे है। क्या यह भी रहनुमाई व्यवस्था को बुद्धिजीवी समाज को ही बताना पड़ेगा। इतनी समझ तो लोकतांत्रिक राजनीति में होनी चाहिए। मजबूत राष्ट्र की नींव पड़ती है, अच्छी शिक्षा व्यवस्था, खुशहाल सामाजिक परिवेश से। न कि अन्य तरह की चाल से। आज देश में शिक्षा और रोजगार की क्या स्थिति कैसी है, वह जगजाहिर है। फ़िर शैक्षणिक संस्थानों के नाम परिवर्तन से पहले बहुतेरे सवालात दृष्टिगत होते हैं। क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था रोजगार का साधन बन पा रही है? क्या शिक्षण संस्थानों का नाम परिवर्तन आवश्यक है, या संस्थान की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति पहले होनी चाहिए? हां अगर नाम परिवर्तन ही आज के दौर में विकास, रोजगार और संस्थानों की सुविधाओं में सुधार की गारंटी बनकर उभर रहें हैं, तो यह परिवर्तन भी होना चाहिए। लेकिन क्या इस नाम परिवर्तन का क्या प्रभाव सकारात्मक ढंग से पड़ा, उसका आंकलन कर सरकार आवाम और संस्थाओं से जुड़े छात्रों को सूचित कर पाएगी?
स्टेशनों के नाम परिवर्तन के बाद अब दिल्ली के दयाल सिंह कॉलेज का नाम बदलने की बयार चल रही है। तो क्या माना जाए, सरकारी तंत्र अपनी सोच का शरणगाह स्कूल, कॉलेजों को बनाने के लिए लोकतंत्र के बाद से कोशिश करती आ रही है, क्योंकि इन नाम परिवर्तन का कुछ विशेष फ़र्क़ संस्थाओं आदि की सुविधाओं पर पड़ता नहीं। बशर्ते कि यह भले होता है, कि समाज के तबक़े में तटस्थता के अलावा अन्य कोई विचार पनप नहीं पाता। जो एक सशक्त राष्ट्र की परिधि को बौना बनाने का कार्य ही करता है। आज हमारे देश में जरूरत शिक्षा तन्त्र में व्यापक सुधार की है। नाम परिवर्तन की राजनीति की नहीं। जिस देश की जुबां से गंगा यमुनी तहज़ीब निकलती हो, वहां पर नाम का महत्व नहीं काम का अर्थ होता है। यह देश के सियासतदां को बेहद संजीदगी के साथ समझना होगा। जहां तक दयाल सिंह मजीठिया के योगदान की बात है, पत्रकारिता और शिक्षा जगत में उनका विशेष योगदान रहा है।
जब आज के दौर में धन ही सत्ता का पर्याय बन गया है, तो आज कि राजनीति को दयाल सिंह मजीठिया से सीख लेनी चाहिए। उन्होंने शिक्षा के लिए अपनी ज़मीन-जायजाद कुर्बान कर दी। जब देश अज्ञानता के भट्टी में दबा हुआ था, तब मजीठिया ने देश को उससे निकालने का प्रयास किया। और अगर अब उनके नाम को परिवर्तित किया जा रहा है, तो यह राजनीतिक वितंडा खड़ा करने के अलावा कोई अन्य प्रयास दिखता नहीं। जब पाकिस्तान में मजीठिया कॉलेज होने के बावजूद कोई आवाज नाम परिवर्तन की नही आई, फ़िर देश के भीतर इतना उतावलापन क्यों दिख रहा है। हां नाम परिवर्तन ही करना है, तो क्या शिक्षातंत्र की अन्य खामियां दूर हो गई ? मीडिया रिपोर्ट्स के हवाले से बात रखें तो आज मजीठिया कॉलेज ही बुनियादी सुविधाओं के अभाव में सांसे गिन रहा है। फ़िर देश के अन्य स्कूल-कॉलेजों की क्या बानगी है। उससे शायद देश का बच्चा बच्चा वाकिफ़ हो। फ़िर व्यर्थ के नाम परिवर्तन का मुलम्मा क्यों खड़ा किया जा रहा है। देश का भविष्य नाम परिवर्तन से मजबूत नही बेहतर और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से होगा। जिसमें सुधार की पहल तो ऐसे हो रही है, जैसे अंधेरे में तीर चलाई जा रही हो।
एक शिक्षक, एक किताब, और एक बच्चा पूरी दुनिया को बदलने की क्षमता रखता है। बशर्ते अवसर की उपलब्धता हो। वर्तमान सरकार जो दो करोड़ रोजगार उपलब्ध कराने का दावा करके सत्तारूढ़ होती है, उसको उपलब्ध कराने में वह विफल होती है। एक फ़रमान के द्वारा देश भर में एक जैसी शिक्षा देने की बात की जाती है। उसके इतर देश में शिक्षकों, स्कूलों और महाविद्यालय की स्थिति किसी से छिपी दिखती नहीं। तो क्या जब एक जैसी शिक्षा देने का मुलम्मा खड़ा किया जा रहा है, और शिक्षकों का कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व क्या होता है, सरकारे निर्धारित नहीं कर पा रहीं, फ़िर सवाल तो बहुतेरे ख़ड़े होते हैं। पहला सवाल जब शिक्षा मानव विकास की पहली सीढ़ी होती है, फ़िर सरकारी स्कूलों और विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की कमी क्यों भरी नहीं जाती? आख़िर देश की शिक्षा व्यवस्था को ठेकेदारी व्यवस्था पर कब तक चलाया जाएगा? आज की युवा पीढ़ी अनपढों की फ़ौज से अगर पढ़ेगी, तो योग्य शिक्षकों की परिकल्पना भविष्य में भी नही की जा सकती। आज के दौर में जो संविदा शिक्षकों की प्रक्रिया बढ़ रही है, वह छात्रों और शिक्षकों दोनों के लिए नुकसानदेह साबित हो रही है। कई विश्वविद्यालयों और महाविद्यालय में तो शिक्षा का स्तर औंधे मुंह गिर पड़ा है। जिसका कारण योग्य शिक्षक का न होना, शिक्षको की नियुक्ति समय पर न होना और नियुक्ति प्राप्त शिक्षकों में विषय-विशेषज्ञता हासिल न होना है।
आज ज़रुरत शिक्षण संस्थानों के नाम बदलने और किताबी पाठ में महापुरुषों के पाठ परिवर्तन की नही, क्योंकि आज भी देश में तमाम आयोग और कानून के बाद 28.7 करोड़ लोग अशिक्षित है। तो जरूरत उनके विचारों पर जोर देने की है। साथ में अशिक्षितों को शिक्षित करने से पहले शिक्षा को रोजगार सृजन के क़ाबिल बनाने पर जोर होना चाहिए, नहीं तो पढ़े-लिखे बेरोजगारी की भट्टी ही बनकर देश रह जाएगा। जब शिक्षा के क्षेत्र में समस्याएं काफ़ी है, और देश विकसित अवस्था में जाने का हुंकार भरता है। फ़िर शिक्षा बजट पर मात्र 3 फ़ीसद ही ख़र्च क्यों? क्या देश की युवा पीढ़ी का देश की व्यवस्था में कोई महत्व नहीं। जब अमेरिका अपने जीडीपी का 6 फ़ीसद शिक्षा और शोध पर ख़र्च करता है। फ़िर हमारा देश शिक्षा को रोजगार के लायक़ बनाने के लिए शिक्षा व्यवस्था में बदलाव करता क्यों नहीं दिखता। नॉर्वे 6.5 फ़ीसद, इजरायल 6.5 फ़ीसद, क्यूबा 12.6 फ़ीसद और उत्तर कोरिया जैसा देश अगर शिक्षा पर 6.2 फ़ीसद जीडीपी का हिस्सा ख़र्च करता है। फ़िर हमारे देश में शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति लाने का विचार कब आएगा। जब 20 फ़ीसद शिक्षक ही एनसीटीई के मानक पर खरे नहीं उतरते औऱ शिक्षण संस्थान की हालत पतली है, फ़िर प्रतिभाओं का कुंद पड़ जाना देश में स्वाभाविक है। तो आज ज़रुरत शिक्षा के स्तर में सुधार आदि की है, न कि नाम परिवर्तन की राजनीति की। यह देश की व्यवस्था को समझना होगा।