लेख– पंच मारना होगा, निजी अस्पतालों की मनमानी पर
संविधान हमें जीवन रक्षा का अधिकार ही नहीं देता, समानता और सामाजिक बराबरी की बात भी करता है। तो क्या आज के दौर में समावेशित विकास का स्वांग रचा जा रहा है, तो यह मान ले। समाज की दिशा और दशा में समरूपता आ गई। शायद नहीं, क्योंकि गरीबी की परिभाषा संविधान के अपनाने के 67 वर्ष बाद भी 32 में निर्धारित होती है। जबकि देश की लगभग 58 फ़ीसद सम्पत्ति एक फ़ीसद हाथों में सिमट चुकी है। फ़िर ऐसे में सार्वजनिक स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के मुद्दे बड़बोलेपन वाली राजनीति के सामने शायद बौने हो जाते हैं। वर्तमान राजनीति 2025 तक टीबी और उससे पहले कुपोषण पर अंकुश की बात करती है, जो वर्तमान व्यवस्था को देखकर अंधेरे में तीर चलाने जैसा लगता है, क्योंकि आजादी के सत्तर वर्ष बाद भी हमारे देश में स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार मुकम्मल तरीके से हो नहीं पाया है। सरकारी अस्पताल तो ख़ुद भगवान भरोसे अपनी अंतिम सांसे गिन रहें हैं। ऐसे में निजी अस्पतालों का पनपना और राजनीतिक गठजोड़ कर पैसे की मशीन बन जाना सरल और सहज देश के भीतर हो जाता है।
बीते दिनों गुरुग्राम के फोर्टिस अस्पताल में निजी अस्पताल की जो ख़ौफ़नाक तस्वीर समाज से निकलकर आई। वहीं लगभग पूरे देश के प्राइवेट अस्पतालों का असली चेहरा है। दूर-दराज के क्षेत्रों की स्थिति तो इससे भी भयावह है, जहां सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों पर डॉक्टरों के अभाव में झोलाछाप डॉक्टरों की फौज मलाई मार रही है। गुरुग्राम में डेंगू पीडित सात साल की बच्ची के करीब 15 दिनों तक चले इलाज का बिल लगभग 16 लाख बताया गया। इसके बाद भी बच्ची की जान अगर प्राइवेट अस्पताल बचा नहीं सका। फ़िर क्या कहा जाए देश की व्यवस्था और नीतियों के बारे में। ऐसे में बहुतेरे प्रश्न खड़े होते हैं, तो कुछ पर चर्चा कर ही लेते हैं, क्या आज के दौर में प्राइवेटाइजेशन ही हर समस्या का निदान है? जबकि यह व्यवस्था गरीब तबकों के साथ खेल खेल रहीं है। क्या विकास का खाका यही कहता है, कि समाज में पैसे की पूछ के आगे मानवता तार-तार होकर अपनी सांसे तोड़ दे? क्या आज के दौर में सरकारी तंत्र हर क्षेत्र में निठल्ला हो गया है? अभी गोरखपुर और गुजरात के अस्पताल में हुई बच्चों के मौत को ज्यादा दिन नहीं हुए। ऐसे में सवाल यही जब टैक्स जनता से वसूल किया जा रहा, फ़िर सरकारी सुविधाओं के नाम पर लोगों के जीवन से खिलवाड़ क्यों? क्या गुरुग्राम में मानवता और ईलाज के नाम पर जो खेल खेलने का उदाहरण प्रस्तुत किया गया है, उससे लोकशाही व्यवस्था कुछ सीख लेगी? अभी बीते दिनों मीडिया रिपोर्ट्स में दिखाया गया कि देश के प्रतिष्ठित चिकित्सा संस्थान में मरीजों को 2019 की डेट चेकअप और ऑपरेशन के लिए दी जा रही है। फ़िर अन्य छोटे और दूरदराज के कितने लोग स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में दम तोड़ देते होंगे, हिसाब लगाना मुश्किल हो सकता है।
जमीनी स्तर पर देश में स्वास्थ्य सेवा की व्यवस्था जांचे तो उसमें काफ़ी लोच है। सरकारी अस्पतालों में चिकित्सकों की कमी व उत्तम सुविधाओं का अभाव होने के कारण मरीजों को अपना सिर अंत में ओखली रूपी निजी अस्पतालों में देना पड़ता है, और यहाँ भारी-भरकम बिल देने के बाद भी जान बचेंगी, या नहीं उसकी चिंता भी रहती है। जिस देश की 37 फ़ीसद जनता विकसित और न्यू इंडिया के दौरान गरीबी रेखा से नीचे खड़ी है, और 80 करोड़ जनसंख्या 20 रुपए बनिस्बत कमाकर जीवनयापन कर रही है, और उसे अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा इलाज पर खर्च करना पड़ रहा है। रिसर्च एजेंसी अर्न्स्ट एंड यंग द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में 80 फीसदी शहरी और करीब 90 फीसदी ग्रामीण नागरिक अपने सालाना घरेलू खर्च का आधे से अधिक हिस्सा स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च कर देती है। जिससे हर साल चार फीसद आबादी गरीबी रेखा से नीचे आ जाती हैं। फ़िर निजी अस्पतालों की मार से केवल नीति नहीं बचा सकती, क्योंकि निजी अस्पतालों के महंगे इलाज से बचाने की नीति 2010 में द क्लीनिक रजिस्ट्रेशन एंड रेगुलेशन एक्ट बना था। जो आज तक मात्र 7 प्रदेशों और 6 केंद्रशासित प्रदेश में लागू हो पाया है।
इसके अलावा अगर विश्व स्वास्थ्य संगठन के 2016 के एक अध्ययन के मुताबिक , उत्तर प्रदेश में 19.9 फीसदी चिकित्सकों की कमी है। वहीं उत्तर प्रदेश में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में 50 फीसदी तक नर्सिंग स्टॉफ नही हैं। साथ ही साथ 2016 में उस समय के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के अनुसार देशभर में 24 लाख नर्सों की कमी थी। साथ में अगर 1.53 लाख स्वास्थ्य उपकेंद्र और 85,000 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र होने पर चिंता जाहिर की थी। इसके इतर सरकार भी मानती है कि देशभर में 14 लाख डॉक्टरों की कमी है। इसके बावजूद प्रतिवर्ष 5500 डॉक्टर ही तैयार हो पाते है। तो क्यों न कोई कठोर नीति बनाई जाए, जिससे सरकारी अस्पतालों के प्रति डॉक्टरों का रुझान बढे। देश में विशेषज्ञ डॉक्टरों की 50 फीसदी से भी ज्यादा कमी है। ग्रामीण इलाकों में तो यह आंकड़ा 82 फीसद है। ऐसे में अगर स्वास्थ्य सेवाओं में निजी निवेश 75 प्रतिशत तक बढ़ गया है। तो निजी अस्पतालों का मतलब ही पैसा बनाना हो जाता है। अब सरकार को निजी अस्पतालों की मनमानी रोकने के लिए सार्थक पहल करनी होगी। साथ में डॉक्टरों को भी प्रोत्साहित करना होगा, कि वे सरकारी अस्पताल में अपनी सेवाएं तन-मन से दे, इसके लिए सरकार को स्वास्थ्य के मद पर ख़र्च को भी बढ़ाना होगा, तभी समाज के गरीब और वंचित तबकों को स्वास्थ्य सुविधाएं मिल सकती हैं।