गीतिका/ग़ज़ल

आग हम अंदर लिए हैं

वो किसी पाषाण युग के वास्ते अवसर लिए हैं ।
देखिये कुछ लोग अपने हाथ मे पत्थर लिए हैं ।।

है उन्हें दरकार लाशों की चुनावों में कहीं से ।
अम्न के क़ातिल नए अंदाज में ख़ंजर लिए हैं ।।

जो बड़े मासूम से दिखते ज़माने को यहां पर ।
हां वही नेता सुरक्षा में कई नौकर लिए हैं ।।

अब कहाँ इस दौर में जिंदा बची इंसानियत है ।
मुजरिमों को देखिये अब देह पर खद्दर लिए हैं।।

सुब्ह वो देते नसीहत भ्रष्टता से दूर रहिये ।
बेअदब होकर जो रिश्वत ही यहां शबभर लिए हैं ।।

ख्वाहिशें इनकी जुदा हैं खूब तानाशाहियां भी ।
ये चमन के वास्ते उजड़ा हुआ मंजर लिए हैं ।।

ज़ह्र फैला इस कदर, कि अब घुटन बढ़ने लगी है ।
जिंदगी के फैसले हमने भी शायद कर लिए हैं ।।

रह गए काबिल सभी कानून ये अंधा हुआ जब ।
वो तरक्की मुल्क में अब जात के दम पर लिए हैं।।

मिट गया उस मुल्क का नामोनिशां जिस मुल्क में सब ।
आलिमों ने भीख की खातिर बिछा बिस्तर लिए हैं।।

ऐ सियासत बाज आ तू कुछ तो कुदरत से डराकर ।
जल न जाए मुल्क सारा आग हम अंदर लिए हैं ।।

शब-रात
आलिम – विद्वान

–नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित

*नवीन मणि त्रिपाठी

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