कविता
मैं कविता नहीं लिखता
मैं उपमा नहीं देता
मैं शब्दों में सपने नहीं दिखाता
मैं झूठी तारीफ़ के पुल नहीं बांधता
हां,,,हां,,,,ये सच है
खरा सच है
मैं नहीं दूंगा तुम्हें
कोई भी छलावा
नहीं रखूंगा तुम्हें
किसी गलफ़त के पर्दे में
मैं पुरूष प्रजाति का
एक विचित्र जीव हूं
जो तुम्हारा स्वाद और रस
लेने के बाद भी
तुम्हें रसीली नज़र से निहारेंगा
आत्मबंधन में जकड़ जाने के बाद
तुम्हारे दर्द पर चिल्लाएगा
अब इतना भी क्या भाव खाना
चली भी आओ
मेरे फैलाये प्रेमपाश में
हमेशा के लिए
क्योंकि तुम ही वो कविता हो
जिसका कवि बनने की
मुझे बेइंतहा तलब है।