वासना के नगर तो हैं पनपे मगर ,
नेह के गाँव जाने कहाँ खो गए !
प्यार देकर जिसे सींचते हम रहे –
फल उसी पेड़ के अब ज़हर हो गए !
ये हवाओं में कैसी घुली है घुटन ,
फूल ही दे रहे शूल की सी चुभन !
आग रिश्तों में ऐसी लगी क्या कहें –
सारे सम्बन्ध जलकर धुआँ हो गए !
अब किसी के हृदय में तरलता नहीँ
मन के भीतर तनिक भी सरलता नहीँ
छाँव देते नहीँ अब किसी को “शशी “
लोग तपती हुई दोपहर हो गए !
— डॉ. शशि जोशी “शशी”