“गज़ल”
उस हवा से क्या कहूँ जो छल दुबारा कर गई
रुक जला डाले महल औ दर किनारा कर गई
रोशनी से वो नहाकर जब चली अपनी डगर
डालियाँ थी जल रही खग बे सहारा कर गई॥
देख लेती गर कभी उजड़े हुये इस चमन को
तक न पाती रह नजारा जो खरारा कर गई॥
उस पहर को क्या हुआ क्या पूछ पाती नजर से
हकबका कर पलट जाती छत उघारा कर गई॥
आज भी जो गंध है बिखरी हुई इस चाल में
क्या महक पाती नशा महफिल सरारा कर गई॥
पूछ लेना यदि मिले वो अब किसी भी म्यान में
क्या यहाँ भी वल जलेगा जो घसारा कर गई॥
देख ले गौतम दिशाओं में वही गर्मी नहीं
दर्द लेकर ढल रहीं है जो दरारा कर गई॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी