मेरे भीतर रोज़ तमाशा होता है !
रोना -धोना ,हँसना -गाना होता है !
चुपके -चुपके कुछ पगले अरमानों का,
दिल के रस्ते आना -जाना होता है !
आखिर तकदीरें ही हावी होती हैं ,
हो जाता है जो कुछ होना होता है !
खुद को बेहद हल्का -फुल्का पाती हूँ ,
जब -जब अपने भीतर जाना होता है !
गया वक्त यादों के तीर चलाता है !
मेरा दिल हर रोज़ निशाना होता है !
अपनी ओर वो खींच ही लेता है सबको ,
जो दिल बच्चो जैसा नादां होता है !
उम्मीदों के पंख लगाकर निकली हूँ ,
देखो कहाँ तलक अब जाना होता है !
— डॉ. शशि जोशी “शशी”