राजनीति

लेख– फ़िर व्यर्थ में लोकतांत्रिक मुलम्मा क्यों?

देश के अन्य प्रांतों के चुनावी माहौल के दौरान एक कथ्य बार-बार सत्तासीन भाजपा द्वारा दोहराया गया, वह था गुजरात मॉडल। यह बात भी कुछ मायने में सही है, कि गुजरात में विकास हुआ। अब जब गुजरात चुनाव क़रीब है, उस वक्त की राजनीतिक फिजा देश को क्या पैगाम और पथ-प्रदर्शन दे रहीं है। चुनाव में जनेऊ और मंदिर का मुद्दा विकास पर हावी हो गया है। जो देश की लोकतांत्रिक राजनीति का काला चिट्ठा उधेड़ रही है, कि देश कितना भी उन्नतशीलता की ओर बढ़ जाए, लेकिन जाति, धर्म से उसका चोली-दामन का साथ हो चला है। बात आखिरकार चुनावी मौसम में रुकती जाति धर्म पर ही है। अब गुजरात चुनाव लगभग अपने अंतिम पड़ाव पर है, लेकिन बात मंदिर, जाति और धर्म के आगे शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य मूलभूत समस्याओं तक नहीं पहुँच रही है। गुजरात के विकास मॉडल की दुहाई भले राजनीतिक गलियारों में दी जाती हो, लेकिन रोजगार और शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर पूर्ण नियंत्रण हो पाना मुश्किल लगता है, फ़िर ये मुद्दे गूढ़ क्यों हो चले हैं। यह लोकतांत्रिक परिपाटी की बहुत बड़ी खामी है, कि आज भी उम्मीदवार का चुनाव जातीय समीकरण को देखकर किया जाता है।

गुजरात चुनाव भी उससे अछूता नहीं दिख रहा है। पाटीदार समाज को साधने की पूरी कोशिश भाजपा और कांग्रेस द्वारा की जा रही है। आज के दौर में बात विकास की, रोजगार की, बेहतर स्वास्थ्य और चिकित्सा की होनी चाहिए, लेकिन हमारी राजनीति शायद वर्षों से उससे मुँह चुरा रही है, आज यह कहना मुनासिब लगता है। विश्वपटल का नेतृत्व करने को उतावली और महाशक्ति बनने को तत्पर देश का एक अकाट्य सत्य यह भी है, कि न देश में अच्छी सड़कें है, न रोजगार है, न स्वास्थ्य सुविधाएं हैं, न सबको रोजगार सुलभता से उपलब्ध हो पा रहा है। ऐसे में अगर देश की दो-तिहाई जनता दो वक़्त की रोटी को मोहताज है, फ़िर इस हिस्से में कुछ लोग तो गुजरात मॉडल के भी शामिल होंगे, फ़िर हर चुनावों में मात्र जाति, धर्म को आगे क्यों कर दिया जाता है। उत्तरप्रदेश और अन्य हिंदी भाषी अधिकतर राज्यों में जातीय राजनीति चरम पर तो होती ही है, गुजरात भी उसी ढर्रे पर चल निकला है। गुजरात में 40 फ़ीसद मतदाता पिछड़े वर्ग से तालुकात रखता है, उसके अलावा 14 फ़ीसद के लगभग आदिवासी समाज का वजूद है। मंदिर और जातीय समीकरण में उलझी गुजरात की बिसात को इस लिहाज से भी समझा जा सकता है, कि राहुल गांधी अपनी 12 दिन की नव सृजन यात्रा के दौरान उत्तर से दक्षिण और मध्य गुजरात के बीस से अधिक मंदिरों पर ही चुनाव जीत का आशीर्वाद लेते रहे। जिसमें दो दलित का मंदिर भी शामिल था, यानि मंदिर के चौखट पर शायद आज के राजनीतिकार माथा भी वोटबैंक को मद्देनजर ऱखकर टेकते हैं। राहुल गांधी जिस रफ़्तार से मंदिर भ्रमण कर रहे थे, शायद लोगों को भी लगा हो, कि वे देव भ्रमण कर रहें हो।

गुजरात चुनाव प्रचार की एक बात ओर है, जिसमें शायद सभी दलों की जुबां गंदी होती गई, जिसमें असली मसायल कहीं गुम ही हो गया। गुजरात में भी अन्य राज्यों की तरह असली मसायल पानी की किल्लत, बढ़ती स्कूलों की फ़ीस, स्वास्थ्य सुविधाओं का हर तबक़े तक पहुंच न होना, किसानों की दुर्दशा, बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी है, लेकिन राजनीति ने उस पर जाति, धर्म के साथ बेफिजूल की बहस में भूल चुकी है। जिस गुजरात मॉडल की दुहाई दी जाती है, उसके भाव नगर निगम द्वारा एक दिन छोड़कर दूसरे दिन पानी की आपूर्ति की जाती है। मुख्यमंत्री का चुनाव क्षेत्र राजकोट भी पानी को तरसता है, और सरकारी योजना अभी भी पाइप लाइन में जमींदोज़ हो रहीं हैं। दूसरी समस्या कृषि है। अखबारों की सुर्खियों के मुताबिक बीटी कपास की कीमत 150 रुपए कम कर दी गई है, उसके ऊपर से कृषि के क्षेत्र की अन्य समस्याओं का बवंडर सो अलग। रोजगार न होना पूरे देश की कड़वी हकीकत सी बन गई है। ये कुछ उदाहरण है, गुजरात के विकास मॉडल के। ऐसे में क्या उम्मीद की जाए कि क्या देश की राजनीति कभी जाति धर्म से इतर जनमहत्व के मुद्दों पर भी राजनीतिक चर्चा करेगी? आज की राजनीति की एक कड़वी हकीकत यह भी है, कि तत्कालीन समय में सत्ता हथियाने का सबसे बड़ा हथियार धनबल, जातिबल और बाहुबल हो गया है। राजनीतिक शुद्धिकरण की बातें आज के वक्त में राजनीतिक फरेब लगने लगी हैं। ऐसे में एकमात्र प्रश्न जब चुनावी प्रपंच और राजनीति की गिरती भाषा के साथ जातिबल का प्रयोग ही चुनावी जीत की प्रयोगशाला मान ली गई है, फ़िर व्यर्थ में लोकतांत्रिक मुलम्मा क्यों?

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896