लेख– आंदोलन से उपजी पार्टी के पहले पांच वर्ष
पांच वर्ष पूर्व जिन मुद्दों पर आम आदमी पार्टी ने भारतीय मौजूदा राजनीतिक दलों का घेराव कर सियासी जमीं तलाशना शुरू किया था। आज के दौर में कहीं न कहीं आप भी उसी फ़ेर में उलझ चुकी है। जिस राजनैतिक शुचिता और पारदर्शिता के मुद्दे पर पार्टी का गठन हुआ था। वह आज उससे ही कन्नी काटती प्रतिबिंबित हो रही है। पांच वर्ष पूर्व आप के जन्म का मक़सद ही राजनीति में एक नए सवेरे का उदय होने की बात प्रचारित और प्रसारित की गई थी। जिसके ऊपर से वर्तमान में पानी बहता हुआ दिख रहा है। शायद यहीं कारण है, कि आम आदमी पार्टी को लोकतांत्रिक सरपरस्ती की अन्य पार्टियों से अलग और नैतिक दल मनाने वालों की संख्या कम होती जा रहीं है। अगर किसी पार्टी के लगभग दस से अधिक विधायक पहली बार ही चुनाव रण में जीतने के बाद कानूनी पेंचीदगी में फंस जाएं। तो क्या समझ जाएं, क्या वह पार्टी अन्य दलों से अलग अपनी उपस्थिति लोकतंत्र के तक़ाज़े पर दर्ज करा सकती है। यह बिल्कुल नहीं हो सकता। आम आदमी पार्टी के विधायकों पर जिस हिसाब से लाँछन लगें, उसका सीधा अर्थ निकलता है, कि आम आदमी पार्टी भले ही आंदोलन से निकली पार्टी है, लेकिन उसकी पार्टी का भीतरी लोकतंत्र भी खोखला और हमाम में सभी नंगो से बिल्कुल अलग नहीं है। अपने को अन्य दलों से अलग बताने में माहिर केजरीवाल में भी कहीं न कहीं राजनीतिक महत्वाकांक्षी जगी, जिसके फलस्वरूप प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव जैसे नेताओं से आप को हाथ धोना पड़ गया। केजरीवाल और उनकी पार्टी के उदय का एक मात्र आधार देश में व्याप्त भ्रष्टाचार से लदी व्यवस्था थी, अगर ऐसे में शंगुलू कमेटी ने आप पर भ्रष्टाचार में संलिप्त होने का आक्षेप लगाया, तो इसका सीधा अर्थ यही है, कि इससे केजरीवाल की साख भी दांव पर लग चुकी है। इसके साथ अगर पहले ही पार्टी के भीतर विदयमान लगभग दर्जनों विधायकों की छवि पर लाछन लग चुके हैं, और वर्तमान दौर में केजरीवाल की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं की वजह से गुजरात और अन्य राज्यों में मिली पराजय से पार्टी का वजूद उदय के साथ सिमटता जा रहा है।
इसके साथ आप के मुखिया शुरू से विवादों के दुष्चक्र में फंसे रहे। तो उनकी पार्टी के अन्य नेता भी अपनी स्वच्छ छवि को धूमिल होने से सहेज नहीं सकें। पांच वर्षों के भीतर ही पार्टी के अंदरूनी हिस्से में खटपटबाजी शुरू हो गई। जिसने जनता को यह बताने का काम किया, कि इस पार्टी में भी राजनीतिक महत्वकांक्षाओं का विषय काफ़ी ज़ोर पकड़ चुका है। आम आदमी पार्टी के उदय के पीछे एक बड़ा कारण भ्रष्टाचार मुक्त शासन व्यवस्था बनाना था। अब जब उसके वजूद में आए हुए पांच वर्ष हो गया, तो हिसाब देना तो बनता है, कि उसने दिल्ली की व्यवस्था से भ्रष्टाचार को किस हद तक कम कर पाई है? शुरुआत में आम आदमी पार्टी से जनमानस की उम्मीदें काफ़ी थी, कि वो मैली हो चुकी राजनीति को स्वच्छ और स्वस्थ बनाने का भगीरथी रूपी बीड़ा उठाने में सफ़ल होगी, लेकिन आंतरिक कलह , पार्टी प्रमुख केजरीवाल द्वारा हर वक़्त मात्र केंद्र सरकार की आलोचना करना और भ्रष्टाचार के कथित आरोपों ने आप को भी भारतीय राजनीति में उसी अशुद्ध धारा की तरफ़ मोड़ दिया, जिस वैचारिक और राजनीतिक गंदगी में सभी राजनीतिक हमाम बह रहे हैं। शुरुआती समय मे जिस तरह से आंदोलनकारी व्यवस्था से आप उपजी थी, उसको देखकर आम मध्यम वर्गीय परिवारों और पढ़े-लिखे नौजवान तबक़े में नई राजनीतिक परिवेश निर्मित होने की आस भी जगी थी। जिसके कारण आम आदमी पार्टी 2013 में दिल्ली के सिहासन पर काबिज़ होती है। उसके बाद 2015 में जब पुनः चुनाव होता है, तो लोकतांत्रिक इतिहास आम आदमी पार्टी के जीत का गवाह बनता है, परन्तु उसके बाद पार्टी में अंदरूनी खींचतान, भ्रष्ट आचरण का दाग और वैचारिक द्वंद्व ने आम आदमी की लुटिया लुटियंस की दिल्ली के साथ अन्य राज्यों में डुबोनी शुरू कर दी।
जिसका परिणाम यह हुआ, कि जनमत का मूड अन्य राज्यों में आप से हट गया, जिसका व्यापक असर यह हुआ, कि पंजाब और गोआ जिसे जीतकर राष्ट्रीय फ़लक़ पर अपनी राजनीति का विस्तार करने का सपना आम आदमी पार्टी संजोए जा रहीं थी, वह एक झटके में चकनाचूर हो गया, लेकिन ऐसा भी नहीं कि आंदोलन से निकली यह पार्टी अच्छे परिणाम नहीं दे पा रहीं, लेकिन आपसी मतभेद और केंद्रीय सत्ता से लगातार टकराव की स्थिति ने इस दल द्वारा दिल्ली में किए जा रहें जनहितकारी और अच्छे कामों पर पर्दा डालने का कार्य किया है। दिल्ली में स्वास्थ्य और शिक्षा को लेकर सूबे की सरकार सार्थक क़दम उठा रही है, जिसमें मुहल्ला क्लीनिक और निजी स्कूलों की बढ़ती फ़ीस पर चाबुक मारना अहम काम है। आप पार्टी आज जिस हश्र की तऱफ बढ़ रही है, उसके कुछ अहम कारण है, जिसमें पहला केंद्र और उपराज्यपाल से लगातार वैचारिक द्वंद होना, दूसरा पार्टी के भीतर के नैतिक आभामंडल में आई गिरावट और तीसरा अहम कारण तथाकथित भ्रष्टाचार और पार्टी के अन्य नेताओं के चरित्र को लेकर समय-समय पर उठे सवाल हैं। ऐसे में आने वाले आगामी कुछ साल यह तय करेगें, कि आम आदमी का भविष्य राजनीतिक गलियारों में क्या रहने वाला है। क्या वह राष्ट्रीय फ़लक़ पर चमक बिखेर पाएंगी, या फ़िर देश की अन्य क्षेत्रीय छत्रप की भांति दिल्ली की गलियों में ही ज़मीनदोज होकर सिमट जाएंगी।