पुस्तक समीक्षा

खोज और प्राप्ति : एक नायाब रत्न (पुस्तक समीक्षा)

 

साहित्य समाज को दिग्भ्रम से बचकर एक नई दिशा में अग्रसर होने की प्रेरणा प्रदान करता है।गद्य और पद्य काव्य के माध्यम हैं।संस्कृत वाङ्गमय में पद्य की अपेक्षा गद्य को श्रेष्ठ मान्यता दी गई है।आचार्य दण्डी का कथन है-‘गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति’।इससे यह स्पष्ट है कि गद्य ही विद्वानों की राय में कवियों का निकष(कसौटी) है।प्रथम दृष्टि में यह वाक्य कुछ विचित्र ज्ञात होता है,परन्तु वास्तव में उसके अंतर में बहुत बड़ा रहस्य समाया है।समानरूप से अपने भावों और विचारों को कवि पद्य-बद्ध भाषा में व्यक्त करता है।पद्य में छंद,तुक,लय आदि की अनिवार्यता के कारण छोटी–मोटी गलतियां क्षम्य हो सकती हैं किन्तु,गद्य में अपनी योग्यता और प्रतिभा प्रदर्शित करने के लिए लेखक को पूर्ण अवकाश रहता है और उसको अपनी असमर्थता का रोना रोने का भी कोई मौका नहीं रह जाता है।गद्य में न तो छंद की व्यवस्था उसकी वाक्यावली के पाँवों को जकड़ती है और न ही तुक की अनिवार्यता उसकी प्रगति में रोड़ा बनती है। वाक्यों को मनचाहे ढंग से लघु या लम्बा कर सकता है।कल्पना की ऊंची उड़ानों और अलंकारों की संयोजना में किसी प्रकार की रुकावट नहीं होती है,अतः उक्त कथन की सार्थकता स्पष्ट है।ध्वनिकार ने भी गद्य को ‘छन्दोनियमवर्जित’ रचना कहकर इस बात की पुष्टि की है।
गद्य की एक महत्वपूर्ण विधा है निबन्ध।इस शब्द का प्रयोग किसी विषय की तार्किक और बौध्दिक विवेचना करने वाले लेखों के लिए भी किया जाता है।निबंध, लेखक के व्यक्तित्व को प्रकाशित करने वाली ललित गद्य-रचना है।
“हिन्दी साहित्य कोश” के अनुसार-
“लेखक बिना किसी संकोच के अपने पाठकों को अपने जीवन-अनुभव सुनाता है और उन्हें आत्मीयता के साथ उनमें भाग लेने के लिए आमंत्रित करता है। उसकी यह घनिष्ठता जितनी सच्ची और सघन होगी, उसका निबंध पाठकों पर उतना ही सीधा और तीव्र असर करेगा। इसी आत्मीयता के फलस्वरूप निबंध-लेखक पाठकों को अपने पांडित्य से अभिभूत नहीं करना चाहता।”
उपर्युक्त परिभाषा के सभी बिंदु डॉ.राजेन्द्र सिंह के निबंधात्मक लेख संग्रह ‘खोज और प्राप्ति’ में विद्यमान हैं।जिसका सफल संपादन डॉ.ज्ञानेन्द्र ‘गौरव’ जी द्वारा किया गया है।इस संग्रह में “असली मौज है सच्ची आजादी” से लेकर “मिल गया सब कुछ आत्मविश्वास से” तक कुल चौदह उत्कृष्ट लेख हैं।जिनमें रामकथा के प्रमुख पात्रों के माध्यम से जीवन की प्रतीकात्मक व्याख्या करके लेखक अपने चिंतन की गम्भीरता,गहनता,और सूक्ष्मता का परिचय दे रहा है।
प्रतीक के संदर्भ में डॉ.देवदत्त राय ने ‘संख्यासूचक प्रतीक कोश’ में लिखा हैं-” ‘प्रतीक’ शब्द का प्रयोग उस दृश्य(अथवा गोचर)वस्तु के लिए किया जाता है जो किसी अदृश्य(अगोचर या अप्रस्तुत)विषय का प्रतिविधान उसके साथ अपने साहचर्य के कारण करती है अथवा कहा जा सकता है कि अन्य स्तर के विषय का प्रतिनिधित्व करने वाली वस्तु प्रतीक है।”
‘खोज और प्राप्ति’ लेखक की आध्यात्मिक उन्नति एवं समझ का जीवन्त प्रमाण है।आज के आपाधापी वाले परिवेश में स्वयं को पहचानना और स्व खोज करना बड़ा कठिन काम है।ऐसे अर्थ प्रधान युग में आत्म प्रधान विषय का चयन और सफल परिभाषीकरण अद्वितीय प्रतिभा का प्रतीक है।
“आत्मकथ्य” में लेखक लिखते हैं-“अपने को पाने के लिए बिगड़ैल मन से मानसिक स्वतंत्रता संग्राम छेड़ना पड़ता है।इसके लिए शुरू की गई पदयात्रा ही अध्यात्म है।यही तो आत्मा (राम) की रणयात्रा है जो खोई हुई शांति(सीता)की खोज और प्राप्ति के लिए।” यह वर्णन पद्धति सूफी काव्य की मसनवी शैली के सदृश है,जैसा कि जायसी ने पद्मावत में लिखा है-
“तन चितउर, मन राजा कीन्हा।हिय सिंघल,बुधि पदमिनि चीन्हा ॥
गुरू सुआ जेइ पंथ देखावा।बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा।।
नागमती यह दुनिया-धंधा।बाँचा सोइ न एहि चित बंधा॥
राघव दूत सोई सैतानू।माया अलाउदीं सुलतानू।।”
लेखक द्वारा गद्य में इस बात को कहना अद्भुत है।उनकी सामाजिक दृष्टि बड़ी सूक्ष्म एवं भिन्न है,आज के गिरते शिक्षा स्तर पर वे ‘अपनी खोज स्वयं ही’ में सत्य और सार्थक टिप्पणी करते हैं-
“व्यवसाय बन चुका शिक्षा-क्षेत्र अपने बाजार में मुनाफा ढ़ूँढ़ेगा कि चरित्र एवं संस्कार।”
वास्ताविकता को जिस बेबाकी से बयां किया है वह उनकी उच्च सोच का परिणाम है तथा इससे निडरता भी प्रदर्शित होती है।लेखक मनोवैज्ञानिक ढ़ंग से बचपन को सँवारने की सीख माता-पिता और शिक्षकों को देते हुए ‘वासना की हार’ में कहते हैं-
“बचपन में अपनी गड़बड़ियों की वास्ताविकता समझ पाने की क्षमता विकसित नहीं हो सकती है,क्योंकि बच्चे बंदर की तरह नटखट होते हैं;आत्मकेन्द्रित नहीं ।इनका शारीरिक,बौद्धिक और नैतिक विकास भी नहीं पूरा हुआ रहता है।यह आसान बात नहीं है कि बच्चे स्वयं ही अपनी गलतियों को पहचानें और अपना सुधार कर लें।”
इस स्थिति में परिवार और समाज का उत्तरदायित्व है कि बच्चों को सही मार्ग दिखाया जाए।
किसी ज्ञानी को बिना शील के शांति के दर्शन तक संभव नहीं है। “भूख बनाम जिज्ञासा” में दृष्टव्य है-“व्यक्ति का शील शांति के दर्शन के लिए ज्ञान को सही मार्ग पर पहुँचा देता है।अपने मन(रावण)की मलीनता से क्षुब्ध शीलवान(विभीषण)भय एवं हीनभावना नष्ट हो जाने के बाद शांति (सीता)के दर्शन के लिए ज्ञानरूप वैराग्य (हनुमान)का मार्ग प्रशस्त कर देता है।”
लेखक द्वारा मन को रावण कहना बड़ा ही प्रासांगिक है क्योंकि जिस तरह रावण के सिर और हाथ बार-बार कटने पर भी बढ़ रहे थे उसी प्रकार जब मन को मारने की कोशिश की जाती है तो वह प्रबल ढ़ंग से प्रतिक्रिया करता है; उस पर विजय पाना कठिन होता है पर शीलता का सहारा लेकर जीतना संभव है।
गीता के कर्मयोग की झलक “मिल गया सब कुछ आत्मविश्वास से” निबंध में देखी जा सकती है-“व्यक्ति क्या होना चाहता है? इसका निर्धारण उसके भीतर उत्पन्न विचार से हो जाता है। व्यक्ति का विचार इच्छित वस्तुएँ बन जाता है और घटनाएँ भी।”
विचारोदधि को हृदय कूर्मपृष्ठ पर बुद्धि मथानी रखकर तर्क रज्जू को कल्पना चमू द्वारा वर्षों मंथन के पश्चात् प्राप्त चतुर्दश रत्नों (लेखों) के भंड़ार का नाम है खोज और प्राप्ति।जो सामकालीन हिन्दी गद्य साहित्य का नायाब हीरा है जिसके लिए लेखक को हार्दिक शुभकामनाएँ।

कृति-खोज और प्राप्ति
कृतिकार-डॉ.राजेन्द्र सिंंह
संपादक-डॉ.ज्ञानेन्द्र गौरव
संस्करण-2011ई.
मूल्य-150/-
प्रकाशक-दशावतार प्रकाशन समिति 2 ए/3 || फ्लोर सिटीमॉल लिंकरोड अन्धेरी वेस्ट मुम्बई-400053

 

©पीयूष कुमार द्विवेदी ‘पूतू’

पीयूष कुमार द्विवेदी 'पूतू'

स्नातकोत्तर (हिंदी साहित्य स्वर्ण पदक सहित),यू.जी.सी.नेट (पाँच बार) जन्मतिथि-03/07/1991 विशिष्ट पहचान -शत प्रतिशत विकलांग संप्रति-असिस्टेँट प्रोफेसर (हिंदी विभाग,जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय चित्रकूट,उत्तर प्रदेश) रुचियाँ-लेखन एवं पठन भाषा ज्ञान-हिंदी,संस्कृत,अंग्रेजी,उर्दू। रचनाएँ-अंतर्मन (संयुक्त काव्य संग्रह),समकालीन दोहा कोश में दोहे शामिल,किरनां दा कबीला (पंजाबी संयुक्त काव्य संग्रह),कविता अनवरत-1(संयुक्त काव्य संग्रह),यशधारा(संयुक्त काव्य संग्रह)में रचनाएँ शामिल। विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। संपर्क- ग्राम-टीसी,पोस्ट-हसवा,जिला-फतेहपुर (उत्तर प्रदेश)-212645 मो.-08604112963 ई.मेल[email protected]