हाशिये के पार
परखा जो खुद को
तो हाशिये के उस ओर पाया,
केंद्रबिंदु समझा खुद को;
पर धुरी के नीचे दबा पाया।।
समझ बैठा स्वयं को
मुख्यधारा का संचालक,
पर अनवरत समय की
इक तुच्छ कड़ी भी न बन पाया।।
हाशिये के इस ओर से
दुनिया कितनी रंगीन दिखती है!
पर ध्रुव से देखो तो;
मानवता,करुणा,ममता
सूली पर दम तोड़ती दिखती है।
सोचा!!!
धरती की कोख में समा जाऊँ,
फ़ना होकर फ़िज़ा में घुल जाऊँ,
खुशब बन हवा में बह जाऊँ,
जब खुद को हाशिये के उस पार पाया।।