ईश्वर ने यह भव्य एवं विशाल संसार क्यों बनाया?
ओ३म्
हम जहां रहते हैं वह पृथिवी का एक छोटा सा भाग है। हमारी पृथिवी की ही तरह अनेक व असंख्य पृथिव्यां इस ब्रह्माण्ड में हैं और हमारे सौर मण्डल के समान सूर्य, चन्द्र व अन्य ग्रह भी अनन्त संख्या में इस ब्रह्माण्ड में विद्यमान हैं। यह ब्रह्माण्ड वा संसार ईश्वर ने बनाया है। इसका प्रमाण वेद व वेद पर आधारित ऋषियों के ग्रन्थों में मिलता है। प्रश्न होता है कि ईश्वर ने यह ब्रह्माण्ड क्यों बनाया है? इसको बनाने की उसको क्या आवश्यकता थी? इस प्रश्न पर विचार करते हुए यह विचार आता है कि हम जो–जो कार्य करते हैं वह क्यों करते हैं? क्यों नहीं एक निकम्मे मनुष्य की तरह कोई अच्छा व उपयोगी कार्य बिना किये खाली बैठे रहते हैं? हमें कोई कहता नहीं कि तुम पढ़ाई करो या गलत काम कर रहे लोगों को देखों तो उन्हें समझाओं। एक व्यक्ति विद्वान है, वह अपने विषय का व्याख्यान देता है। कोई विद्वान अध्यापक बन बच्चों को पढ़ता है। डाक्टर रोगियों की चिकित्सा करता है। इंजीनियर भवन निर्माण व अन्य निर्माण कार्यों को सम्पादित व संचालित करता है। माता–पिता सन्तानों को जन्म देते हैं व उनका पालन करते हैं। वह यह सभी कार्य क्यों करते हैं? इसका उत्तर हमें यही मिलता है कि जिस मनुष्यादि प्राणी के भीतर जो योग्यता होती है उसे वह कार्य करने में रस व सुख की अनुभूति होती है। हमने कुछ ग्रन्थों का स्वाध्याय किया और हमें कुछ विषयों का कुछ कुछ ज्ञान हुआ। हम चाहते हैं कि अपना वह ज्ञान दूसरों तक भी पहुंचायें जिससे वह भी लाभान्वित हों सकें। ऐसा करके हमें सुख मिलता है। ईश्वर में ज्ञान व कर्म करने की जो शक्ति व अनुभव है, वह उसे सृष्टि की रचना, जीवात्माओं को उनके कर्मानुसार जन्म, सृष्टि व प्राणी जगत का पालन व सृष्टि की अवधि पूर्ण होने पर उसकी प्रलय करके नई सृष्टि के निर्माण की प्रेरणा करती है। ईश्वर में सृष्टि रचना व पालन का नित्य सामर्थ्य है इसी कारण वह अपने इस स्वभाव से सहज रूप से इस सृष्टि की रचना कर इसका पालन करते हैं। यदि वह न करते तो उन्हें एक आलसी व सामर्थ्यहीन सत्ता कहा जाता। बलवान मनुष्य को यदि बलहीन कहा जाये तो यह उसके लिए एक प्रकार का अपशब्द होता है जिसे वह सहन नहीं कर सकता। जब एक बलवान व्यक्ति बल प्रदर्शित करने की किसी चुनौती को दृष्टि से ओझल नहीं करता तो सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान ईश्वर सामर्थ्य होते हुए सृष्टि की रचना व पालन न करे, ऐसा कैसे हो सकता है? अतः ईश्वर अपनी सामर्थ्य एवं क्षमता को प्रकट करने के लिए व जीवात्माओं के सुख के लिए सृष्टि की रचना एवं पालन सहित उनके जन्म–मरण व कर्मानुसार अनेक प्राणी योनियों में जन्म की व्यवस्था करते हैं।
ईश्वर ने यह सृष्टि बनाई है इससे ईश्वर की सामर्थ्य का ज्ञान मनुष्यों को होता है। इस सृष्टि के बनने से ही यह सम्भव हो सका है कि ईश्वर अपने से इतर एक अनादि सत्ता जीवात्माओं को उनके कर्मानुसार मनुष्यादि जन्म देता है जिससे वह अपने पूर्व काल के शुभाशुभ कर्मो का भोग करते हैं और नये शुभ कर्म करके और अधिक सुख प्राप्त करते हैं। इस सृष्टि की रचना के कारण ही अनेक जीवात्मा अपने पूर्व के अशुभ कर्मों का दुःख रूपी फल भोग कर मनुष्य योनि में आते हैं और यहां शुभ कर्म सहित वैदिक ज्ञान के अनुसार कर्तव्यों का पालन करते हुए धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त करते हैं। सृष्टि के आरम्भ से अद्यावधि अनेक ऋषि, विद्वान व योगी आदि मनीषी हुए हैं जिन्होंने ईश्वर के कार्यों पर विचार किया परन्तु किसी ने यह नहीं कहा कि ईश्वर को संसार की रचना नहीं करनी चाहिये थी। इसका यह तात्पर्य है कि वह सब ऋषि ईश्वर द्वारा सृष्टि रचना के कार्य को स्वीकार करते थे और इसे उचित मानते थे। इस सृष्टि की रचना करके व इसका सफलता से संचालन करके ही ईश्वर अपनी सामर्थ्य को जीवों के सम्मुख उपस्थित कर पाया है। हमारा कर्तव्य है कि हम ईश्वर की महिमा को समझ कर उसकी स्तुति करें। स्तुति करने से हमारे ज्ञान में वृद्धि होगी और हम भी अपनी सामर्थ्य का अनुमान करके उसकी क्षमता अनुसार देश व समाजोपयोगी कार्य कर सकेंगे।
ईश्वर ने यह सृष्टि जीवों के सुख के लिए बनाई है। इस सृष्टि के बनने से ही जीवों को मोक्ष प्राप्ति के लिए सद्कर्म अर्थात् धर्म कार्य करने का अवसर मिलता है। मनुष्य योनि में जीवात्मा वेद ज्ञान का अध्ययन कर अपना जीवन उसके अनुरूप बना कर अपनी ऐहिक व पारलौकिक उन्नति अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर बहुत लम्बी अवधि के लिए दुःखों से सर्वथा मुक्त हो सकता है। यही सृष्टि बनाने का ईश्वर का उद्देश्य भी है। संसार के अनन्त जीव ईश्वर द्वारा सृष्टि बनाने व उसमें उन्हें मनुष्यादि योनि में उत्पन्न करने के लिए उनके ऋणी व कृतज्ञ है। वह ईश्वरोपासना सहित ईश्वर स्तुति व ईश्वर की प्रार्थना कर इनसे होने वाले लाभों को प्राप्त कर सकते हैं।
मनुष्य जब कोई कला कृति देखता है तो उसकी प्रशंसा करता है। जब भी कोई उसके प्रति उपकार करता है तो वह कृतज्ञ होता है और उसका धन्यवाद करता है। ईश्वर की कृति यह संसार व मनुष्यादि प्राणि व कर्म फल व्यवस्था आदि हैं। इस सृष्टि की भव्यता एवं विशालता को देखकर ईश्वर की सुन्दरता, आनन्दमय सत्ता व उसके श्रेष्ठतम रचनाकर होने का ज्ञान होता है। इसके लिए सभी मनुष्य ईश्वर के प्रति कृतज्ञ हैं एवं ईश्वर की कृति इस संसार से प्रेरणा लेकर स्वयं को अनेक रचनात्मक वा सृजनात्मक कार्यों में समर्पित करते हैं। इससे उन्हें आन्तरिक सुख की प्राप्ति होती है। हमने जो पंक्तियां लिखी हैं उससे ईश्वर कृत यह सृष्टि रचना सहेतुक सिद्ध होती है। अतः हम सभी मनुष्यों को ईश्वर की शरण में जाकर उसकी स्तुति कर उसके गुणों का प्रचार करना चाहिये जिससे मनुष्य स्वयं सुखी होने के साथ अन्यों के सुख का कारण भी बन सके। इसी के साथ हम लेखनी को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य