एक विचार अनंत………
मानव है;
हो सकती गलती,
गलती से कोई गिर सकता है।
जलकर पश्चाताप की अग्नि,
तपकर सोना बन सकता है।
गिर कर उठते, अनगिन देखे।
इतने कोई गिर सकते है,
कभी नही हमने देखे है ।
एक तरफ मोटा वेतन है,
एक वसन बिन केवल तन है।
एक तरफ मस्ती का आलम,
दू-भर हो रहा लालन- पालन।
इतने गहरे स्वार्थ में डूबे,
मानवता के रिश्ते भूले।
अब भी जब तलवार लटकती,
नियत अब भी वही बिगड़ती।
इनकी प्रजाति अलग तरह की,
बाते करते तरह -तरह की,
चुपड़ी मीठी बाते लेकर-
भांति-भांति के स्वांग रचाते,
ले जाते बच्चों का निवाला,
कमी-कमी का दे-दे हवाला।
समझे न कोई जिम्मेवारी,
निकल जाते है बारी- बारी।
बाढ खेत को निगल रही हो,
तब कैसे उम्मीद- लगाए!!!
कितना होगा; चलेगा कब तक,
परिवर्तन की आहट है अब।
संभल गए तो सही रहेंगे,
कब तक आखिर बचे रहेंगे।
पैसे वाले बड़े भिखारी,
छिपी रहेगी कब तक सोचूं-
दिख ही जायेगी मक्कारी।
इनको कोई राह दिखादे,
सोच रहे परिवतन लादे।
सबको है अधिकार बराबर,
हो सबका सम्मान बराबर।
सभी सुखी हो, खुशहाली हो,
सबकी कामना फलवाली है।”
— ‘धाकड़’ हरीश गाँव स्वरूपगंज तहसील छोटीसादड़ी प्रतापगढ़, राजस्थान