लेख– राजनीति में आने का नियम और शर्तें बनती धन और बाहुबल
आज के दौर में राजनीति में आने की नियम और शर्तें शायद धनबल औऱ बाहुबल ही रह गया है। तभी तो गौर करें तो साफ़ झलकता है, कि स्वच्छ राजनीति का सिर्फ़ मुलम्मा ही खड़ा किया जाता है। बाक़ी रीति और राजनीतिक दलों की नीयत शायद वैसी ही है, जैसे अविरल और स्वच्छ गंगा बनाने की है। पिछले साढ़े तीन सालों में गंगा कितना निर्मल हुई, उसका कागज़ी विवरण ही सत्ता पक्ष के पास होगा। वहीं स्थिति स्वच्छ संसद निर्माण की पिछले साढ़े तीन वर्षों से दिख रहीं है। राजनीति का बड़बोलापन है, कि वह बात तो बहुत करती है, लेकिन अमल शायद कम कर पाती है। अब जब दागी नेताओं के लिए 12 फास्टट्रैक कोर्ट के गठन की बात की गई है, तो स्वच्छ राजनीति की उम्मीद देश में आने वाले समय में की जा सकती है। ऐसे में बात अगर अतीत औऱ चल रहे वर्तमान को देखकर करें, तो कभी देश की राजनीति स्वच्छ हो पाएगी, उम्मीद लगती नहीं। पहली बात सियासतदानों की वाणी तो कटुता से परिपूर्ण तो दिख ही रहीं है। दूसरी बात जिस हिसाब से 2013 में प्रकाशित एक मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार देश भर के नेताओं की छवि निकलकर आती है, वह कुछ सवाल खड़ा करती है।
पहले रिपोर्ट का ज़िक्र करते हैं। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक 2013 में आंध्रप्रदेश के 75, अरुणाचल प्रदेश के 2, असम के 13 , छत्तीसगढ़ के 9 , दिल्ली के 8, हरियाणा के 15 , हिमाचल प्रदेश के 14 , झारखंड के 55 , मध्य प्रदेश के 57 , पंजाब के 22 , राजस्थान के 30 विधायकों पर आपराधिक मुकदमे चल रहे थे। उसके अलावा नेशनल इलेक्शन वॉच की मई 2009 की रिपोर्ट के मुताबिक पंद्रहवीं लोकसभा में 150 दागी सांसद थे, जिसमें 73 के खिलाफ गंभीर आपराधिक आरोप थे। ऐसे में पहला सवाल स्वच्छ राजनीति की दिशा में बढ़ने के लिए देश की हुक्मरानी व्यवस्था इतनी देर से क्यों जागी? क्या स्वच्छ राजनीति की जरूरत तब नहीं थी? अब व्यवस्था जगी भी है, तो यह कैसे समझा जाए, कि आगे की राजनीति स्वच्छ और साफ़-सुथरी ही होगी? जब जो सरकार सत्ता में आने के पहले स्वच्छ संसद का वादा करके आती है। उसके बाद अगर पहली सीढ़ी स्वच्छ राजनीति की चलने में साढ़े तीन वर्ष लगते हैं। फ़िर नीति और नीयत दोनों में फ़र्क़ दिखता है। अगर स्वच्छ राजनीतिक माहौल देश की जनता को जनतंत्र में उपलब्ध करवाना ही है, फ़िर लोकसभा के बाद राज्यों के चुनावों में सत्ताधारी दल क्यों आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों को चुनाव मैदान में उतरती है। इससे कथनी और करनी में फ़र्क़ पता चलता है।
लोकसभा चुनाव केे बाद हुए हर चुनाव में आपराधिक पृष्ठभूमि वालों को टिकट दिया गया। साथ-साथ मंत्री तक का पद भी दिया गया। इसके अतिरिक्त हाल में हुए गुजरात चुनाव में भी भाजपा के 25 फीसदी उम्मीदवारों के खिलाफ आपराधिक मामले अगर दर्ज हैं। इसके साथ अकेले गुजरात में कांग्रेस के 32 फीसदी उम्मीदवार दागी हैं। फ़िर इन दलों की नियत पर संशय करना जायज़ है। ऐसे में अगर न्यायपालिका का डंडा चलता रहा, तभी देश की विधानसभाओं और संसद से आपराधिक प्रवृत्ति से निजात मिल सकती है। बीते सात दशक में भी स्वच्छ राजनीति और चुनावी सुधार को लेकर अनेकों कमेटियां गठित हुई। जिसमें दिनेश गोस्वामी समिति, वोहरा समिति, इंद्रजीत गुप्त कमेटी, के साथ विधि आयोग, चुनाव आयोग और प्रशासनिक सुधार आयोग की भी गंज सारी सिफारिशें आईं। जिसमें तो कुछ कागजो में पड़ी धूल फांक रही हैं, तो कुछ चुनाव सुधार भी हुआ, लेकिन बेहतर और अपराध मुक्त संसद न बनाई जा सकी। ऐसे में सवाल सिर्फ राजनीतिक सुधार का नहीं, उससे कहीं विस्तृत फ़लक़ का हो जाता है। तो ऐसे में सवाल यहीं क्या सत्ता का स्वार्थ जनहितार्थ व्यवस्था पर हावी हो जाता है? जिसके सामने लोकतंत्र की रक्षा और जनता से जुडे मुद्दे भी बौने बन जाते हैं।
राजनीति को अब इस नीयत को त्यागकर आगे बढ़ना होगा। जिस हिसाब से आपराधिक प्रवृत्ति और धनबल से संपन्न लोगों के प्रति राजनीति का झुकाव बढ़ा है, उससे लोकतंत्र कमजोर हुआ है। आम जन के मुद्दे उठाने वालों की भी सदन में कमी दिख रहीं है। धनबल और बाहुबल वाले जनता से जुड़े प्रश्न सदन में उठाने से कन्नी काटते हैं। ऐसे में अब उम्मीद का चिराग मात्र न्यायिक तन्त्र ही रोशन कर सकता है। देशभर में जब कोई कथित आरोपी भी हो, तो उसे समाज हेय दृष्टि से देखता है। तो जनता इन आपराधिक छवि के लोगों को चुनती ही क्यों है। शायद वह भी अपने अधिकारों और कर्तव्यों से मुंह फ़ेर रहीं हैं। तभी तो राजनीति उसे जाति और धर्म में बाँटकर राज कर रहीं है। कुछ अधिकार जनता को भी है, अगर वह एक आपराधिक छवि के नेता का बहिष्कार कर दे, तो राजनीतिकार को भी कुछ सबक लेना पड़ेगा। एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक देश के 33 फीसदी सांसद और विधायक ऐसे हैं जिनके खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। जिनमें से 51 गणमान्यों के विरुद्ध महिला अपराध का केस चल है। इस कड़ी में 12 सांसद-विधायक महाराष्ट्र से हैं, जबकि दूसरे और तीसरे नंबर पर पश्चिम बंगाल और ओडिशा के माननीय हैं। राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों के प्रवेश पर रोक की बहस लंबे समय से चल रही है, लेकिन अब तक इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हो सकी। हालांकि करीब डेढ़ महीने पहले इसी मसले पर दायर एक मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से कहा कि दागी नेताओं पर दर्ज मुकदमों की सुनवाई के लिए विशेष अदालतें गठित की जानी चाहिए। अब नेताओं की संलिप्तता वाले आपराधिक मामलों की सुनवाई और फैसलों के लिए जब कम से कम बारह विशेष अदालतें गठित की जाने की बात की गई है। तो उम्मीदों का ढांढस बंधता दिख रहा है, कि देश की राजनीति अपराध मुक्त हो सकेगी। लोकतंत्र में सबसे बडी बिडम्बना या खामी यही उपज गई थी, कि कोई नेता खुद कथित आपराधिक छवि का होने के बाद भी कानून बनाने या उसे लागू करने की प्रक्रिया का हिस्सेदार हो गया था। जो न्यायसंगत के साथ तार्किक भी नहीं है। ऐसे में अब अगर देर से ही राजनीति के हैसियतदार जागते हैं, तो उससे लोकतंत्र को कुछ मजबूती ही मिलेगी।