ग़ज़ल
ग़म के सैलाब पिया करती है।
ये ज़मी यूँ ही जिया करती है।।
ज़िन्दगी ख़्वाब दिखाती जो भी।
कब हक़ीकत में दिया करती है।।
बे-हिसी तंज ज़माने भर के।
मुफ़लिसी रोज लिया करती है।।
वो ख़ुदा है न हिकारत करना।
माँ हिफाज़त ही किया करती है।।
है ‘अधर’ अपनी वफ़ादारी ये।
प्रीति पैबन्द सिया करती है।।
— शुभा शुक्ला मिश्रा ‘अधर’