लेख– सरकारी विज्ञापनों पर ख़र्च और मूलभूत सुविधाओं से वंचित समाज
आरटीआई के ज़रिए सरकारी मद के ख़र्च करने का मामला प्रकाश में आया है। उसने वर्तमान दौर में बहुतेरे सवाल ख़ड़े कर दिए हैं। क्या आज के दौर में सरकारी मद का उपयोग मात्र एक व्यक्ति की छवि निर्माण के लिए लोकतंत्र में होगा? राजनीतिक छवि और व्यक्ति की पहचान उसके काम से होती है, प्रचार-प्रसार से नहीं। देश मे दो स्थितियां निर्मित हो रहीं हैं। जिसमें आजादी के 70 बरस बाद भी जिस देश में 36 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करती हैं। साथ में सिंचाई अगर मात्र 23 फ़ीसद खेतो तक पहुंच पाई है । उस देश की आबादी में लगभग 65 फ़ीसद हिस्सा युवाओं का हो, और उच्च शिक्षा महज साढे चार फ़ीसद युवाओं को मयस्सर हो।
उसके इतर 2014 से 31 अगस्त, 2016 के बीच ऐसे विज्ञापनों पर 11,00 करोड़ रुपये क्यों ख़र्च कर दिए गए, जिसमें मात्र व्यक्ति विशेष को दिखाया गया था। तो क्या समझा जाए, क्या लोकतांत्रिक राजनीति ने अपने दायित्वों का निर्वहन किया। शायद नहीं, करती तो स्थिति इससे इतर होती। आज लोकतंत्र में सबसे बड़ी गड़बड़ी यह आ गई है, कि आवाम को अपने द्वारा किए गए कार्यों से अवगत कराने के लिए करोड़ों-अरबों रुपए फूंक दिए जा रहें हैं। ऐसे में आज बात ऐसे मुद्दे के इर्दगिर्द होनी चाहिए, क्या ज़मीनी स्तर पर हुआ विकास जनता की आंखों से दिखता नहीं? या फ़िर विज्ञापनों की आड़ में जनतांत्रिक व्यवस्था के आंखों में धूल झोंका जा रहा है? जो सरकार दूसरी राजनीतिक पार्टियों द्वारा अपने किए गए कार्यों के प्रचार-प्रसार पर पैसे ख़र्च करने पर वितण्डा खड़ा करती थी, आज उसे किस श्रेणी में रखा जाए। देश की जनतांत्रिक व्यवस्था में शिक्षा, स्वास्थ्य औऱ मूलभूत सुविधाओं के न होने के बावजूद अगर व्यवस्था अपनी छवि चमकाने के नाम पर करोड़ों ख़र्च कर दे, तो यह सामाजिक सरोकार की दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता। आज देश में स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाएं मात्र ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर मामूल पड़ती हैं। फ़िर यह तय है, राजनीति भले कुछ भी करके अपने आप पर नाज़ करें, लेकिन उसके बहीखाते में आम जन की रजिस्ट्री नहीं दिखती।
इसके अलावा मजदूर- किसानों के साथ सरसरा ना-इंसाफी है, जिनको 26 से 32 रूपये कमाने पर गरीब की श्रेणी से बाहर कर दिया जाता है। आज की कमरतोड़ महंगाई के दौर में 26 से 32 रूपये में कैसे परिवार का पालन-पोषण हो सकता है, यह सरकारों को खुद विचार करना होगा? स्वास्थ्य सेवाएं दिनों-दिन महंगी होती जा रही है। और सरकारें मात्र सबको स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करवाने का दावा करती हैं। देश के बेहतर भविष्य के लिए स्वास्थ्य समाज का निर्माण करना महत्वपूर्ण है, इसको समझते हुए भी हमारी सरकारें स्वास्थ्य की नीतियों में व्याप्त लचरता और पिछड़ेपन को दूर करने के लिए चिंतित नहीं है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। अगर हमारा देश वैश्विक बीमारियों के सम्पूर्ण बोझ का लगभग 21 फीसद हिस्सा वहन करता है, और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर हमारी सरकारें खर्च के मामले में विश्व परिदृश्य में निचले पायदान पर है, तो यह जाहिर करता है, कि हमारी रहनुमा व्यवस्था आवाम के स्वास्थ्य और सुविधाओं के प्रति कितना सचेत है? स्वास्थ्य और स्वच्छता एक-दूसरे के पर्याय है, लेकिन देश की विडंबना देखिए स्वच्छ भारत के अंतर्गत खुले में शौच मुक्त भारत की मुनादी पिटी जा रहीं है, लेकिन जहां शौचालय की जरूरत है, वहां तक उसकी पहुँच है ही नहीं। फ़िर ऐसे में अगर महाराष्ट्र के जल संसाधन मंत्री हाईवे किनारे खुले में शौच क्रिया करते हुए दिख जाते हैं। तो यह योजना की नीतियों और कार्यप्रणाली पर सवालियां निशान खड़ा करती है। नेताओं ने भले ही स्वच्छ भारत मिशन के अंतर्गत झाड़ू उठाकर फोटोशूट करवा लिया हो, लेकिन हकीकत यही है, कि हाइवे और गांव को जोड़ने वाली सड़कों के साथ रेलवे पटरियों के आसपास स्वच्छ भारत नाम के मिशन की हवा शायद लगी नहीं। तभी वहां शौचालय घर दिखते नहीं। इसके अलावा जहां ग्रामीण इलाकों आदि में बने शौचालय हैं भी, वहां पानी की समस्या आम बात है। इसके साथ अगर मध्यप्रदेश के सात हजार 180 स्कूलों में छात्रों और पांच हजार 945 स्कूलों में छात्राओं के लिए अलग-अलग शौचालय हैं ही नहीं, फ़िर स्त्री सशक्तिकरण की बातें भी सियासी फ़रेब से ज्यादा कुछ समझ में आती नहीं।
दूसरी औऱ वाहवाही की जल्दबाजी में शौचालय बनाने के फ़ायदे-नुकसान पर ध्यान केंद्रित किया गया नहीं। तभी तो ग्रामीण क्षेत्रों में सीवेज आदि है नहीं। ऐसे में गंदगी के निपटान की कोई रूपरेखा दिखती नहीं। टैंक से निकलने वाली गंदगी पास के वातावरण में घुलकर बीमारियों को जन्म देती है, उससे निपटने की कोई नीति दिखती बनाई गई नहीं। इसके साथ आबादी के लिहाज से दुनिया के दूसरे सबसे बड़े जनतांत्रिक देश में बुनियादी साफ सफाई के बिना रहने वाले लोगों की संख्या सबसे अधिक है। तो यह चिंताजनक स्थिति को व्यक्त करती है। यह सही है, कि पिछले साढ़े तीन वर्षों में देश के भीतर स्वच्छता को लेकर जागरूकता बढ़ी है, और हुक्मरानी व्यवस्था ने भी इस दिशा में सकारात्मक कार्य किया है, लेकिन व्यापक पैमाने पर अभी नीतियों में सुधार की आवश्यकता है। स्वच्छता, स्वस्थ समाज की परिचायक होती है। ऐसे में बिना स्वच्छता के स्वस्थ भारत की परिकल्पना अधूरी लगती है। आज देश मे जब एक व्यक्ति-विशेष की छवि निर्माण और राजनीतिक हितोउद्देश्य के लिए 3755 करोड़ रुपए ख़र्च पिछले साढ़े तीन वर्षों में कर दिया गया। तो ऐसे में इन पैसों की पहली जरूरत कहाँ थी, इससे हुक्मरानी व्यवस्था अनजान क्यों बनती है। और अगर कोई कार्य हो रहा है, तो उसके नफा-नुकसान पर विस्तृत चर्चा की क्यों नहीं जाती? वाटर एड्स की स्टेट ऑफ द वर्ल्ड टॉयलेट्स 2017 रिपोर्ट के मुताबिक देश की क़रीब 35.5 करोड महिलाओं और लडकियों को अब भी शौचालय का इंतजार है, तो इन पैसों की जरूरत कहाँ थी, यह सरकारी तंत्र को कोई ओर बताएं, यह उचित समझ में आता नहीं। रिपोर्ट यह भी बताती है, स्वच्छ भारत मिशन में हुई प्रगति के बावजूद देश के 73.2 करोड से ज्यादा लोग या तो खुले में शौच करते हैं या फिर असुरक्षित या अस्वच्छ शौचालयों का इस्तेमाल करते है। फ़िर जब जनता ने पांच साल के लिए चुनकर सत्ता दी ही है, तो सरकार को अपने प्रचार- प्रसार से पहले जनमहत्व के मुद्दों को प्राथमिकता देनी चाहिए थी। ऐसे में सरकारी मद का प्रयोग कहाँ करना आवश्यक बनता है, यह समझना कोई दूर की कौड़ी नहीं, जिससे व्यवस्था अंजान बनी फ़िर रहीं है। जो लोकतंत्र की भावना के साथ खिलवाड़ ही समझ में आता है।