“गज़ल-गीतिका”
कुछ मिला भी नही ढूढता रह गया
वक्त आ कर गया देखता रह गया
थी निशा भी खिली दिल सजाकर गई
ऋतु झलक कर गयी झाँकता रह गया।।
रात थी ढल गई चाँदनी को लिए
सच पलट कर सुबह सोचता रह गया।।
रात रानी खिली थी कहीं बाग में
पहर की ताजगी महकता रह गया।।
कुछ हवा भी चली तो भीगे साथ में
दिल मचलकर रहा फिसलता रह गया।।
थी निगाहें बहुत कातिलाना हँसी
लूटकर के गयी तड़फता रह गया।।
बहुत गौतम तरा पल जवां भी हुआ
आयना हिल गया पकड़ता रह गया।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी