ले चलें !
लेखनी! संगदिल हवा की बेवफाई तक चलें !
ठंड से हारी हुई दुबली रजाई तक चलें !
ठंड में कीचड़ के मोजे पहन के सिंचन करे,
अन्नदाता की समर्पित आशनाई तक चलें !
ओड़ करके श्वेत खादी,काम काले कर रहे,
उस सियासत के नगर की, बेहयाई तक चलें !
सो गया फिर आज रोके ,लाल एक मजदूर का,
मार के मन रह गई ,मजबूर माई तक चलें !
पेट के इस आग की खातिर बलम परदेश में,
पूष की रातों में तन्हा है, लुगाई, तक चलें !
वो ‘दिवाकर’ यार तेरे गाँव में ही रह गये,
संवारे,बुद्धू, किशुन, रामू, कन्हाई तक चलें !
————–डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी