राजनीति

नदी बनने की जरूरत

अक्सर जब भी सरकारों की तरफ और सरकारी कार्यालयों की ओर देखता हूं तो उसकी ओर जाती जनता को देखकर अहसास होता है कि शक्ति का केन्द्र बांध बनाकर कुछ कार्यालयों को डैम की तरह प्रयोग किया जा रहा है। सारी शक्तियां वहीं पर केन्द्रित हैं। हमारा लोकतंत्र एक प्रकार से छोटे बड़े डैमों के रूप में सम्पूर्ण देश में फैला हुआ है। आम आदमी इस डैम पर आता है और इसकी संरचना से घबड़ाया सा इसके आगे पीछे घूमता रहता है इस डैम से अपने लिए कुछ ऊर्जा संचित करने के उददेश्य के साथ। यदि आप कभी डैम घूमने जायें तो आपकेा इस बात का अंदाजा हो सकता है कि डैम को देखने समझने के लिए आपकेा किस प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। यदि आपकी अप्रोच है तो यह कार्य आसानी से हो जाता है वरना आप चक्कर लगाते रहिये। हमारे कार्यालय भी इस डैम की तरह हो गये हैं जहां नदी जैसा तो कुछ नहीं जिस तक आम आदमी भी आसानी से इसलिए पहुंच जाता है क्योंकि नदी स्वयं व्यक्ति तक पहुंच जाती है। कहा जा रहा है कि उसके लिए सरकारें सरलीकरण की प्रक्रिया की तरफ अग्रसर हैं लेकिन यह तय नहीं है कि यह सरलीकरण होगा कि नहीं और अगर होगा तो किस दिशा में और कब?

खैर, कभी जब रामराज्य की संरचना की कल्पना की जाती है तब सोचता हूं कि लोग सोचते होंगे कि रामराज्य में शासन नदी की तरह बहता होगा। नदी स्वयं इधर उधर बहती हुई जनसामान्य तक पहुंच जाती होगी और खेत खलिहानों को जिन्दा करती हुई जिन्दगी पर मेहरबान हो जाती होगी। लोग नालियां बनाकर इसका पानी ले लेते होंगे। कहीं मेड़ बना दी जाती होगी। नदी का बहना सरल प्राकृतिक क्रिया है और उस पर बांध बांधना अप्राकृतिक क्रिया। बांध बांधने के अपने लाभ हैं और नहीं बांधने के अपने कुछ नुकसान। नदी पर बंधे बांध जब नहीं थे तब भले ही विद्युत आपूर्ति नहीं थी पर प्रकृति या धरती के नष्ट हो जाने का खतरा भी नहीं था। तब यह भय भी नहीं था कि यदि टिहरी बांध पर कोई शत्रु देश चाहे अनचाहे हमला कर दे तो क्या नुकसान होगा। हमने नदियों पर बांध तो बना दिये हैं पर नदियां खोते जा रहे हैं और सोचिये, यदि नदियां नहीं रहीं, यदि ग्लेशियर इसी तरह से पिघलते या पीछे खिसकते रहे तो फिर क्या होगा और यह सब हमारे प्रकृति में जरूरत से ज्यादा हस्तक्षेप करने का नतीजा नहीं तो और क्या है। कभी नदियां थीं तालाब थे दुनियां कहीं ज्यादा खूबसूरत ढंग से आबाद थी संवेदना की नदी का पानी भी नहीं सूखा था। आज धीरे धीरे आंखों की शर्म का पानी सूख रहा है, संवेदना का पानी सूख रहा है और नदियां सूख रही हैं। पत्थर पूजे जाने तक तो ठीक था मगर जगह जगह कंक्रीट के जंगल जिस प्रकार से पूजे जा रहे हैं उससे हम क्या हासिल करने जा रहे हैं यह सोचने लायक बात है। तय मानिये, जैसे जैसे हमारी आंखों की शर्म का पानी बढ़ेगा, संवेदना के पानी में वृद्धि होगी वैसे वैसे नदियां समृद्ध होती जायेंगी। तब किसी अनुपम मिश्र को यह लिखने की जरूरत नहीं होगी कि – आज भी खरे हैं तालाब और रेगिस्तान की रजत बूंदें।

जब कभी मां बाप को अपनी पूरी न हो सकी हसरतों को बच्चों से पूरा किये जाने का सपना पाले हुए देखता हूं तब अहसास होता है कि क्या वे नदी पर बांध बनाने की तैयारी में हैं जहां से वे ज्यादा से ज्यादा ऊर्जा संचित कर सकें या करवा सकें। नदी बनना एक नैसर्गिक प्रक्रिया का हिस्सा बनना है और उस पर बांध बनाना नैसर्गिकता के ह्रास का हिस्सा। अक्सर हम बच्चों को एक नदी बनने के बजाय उस पर बेहद भारी हमारी उम्मीदों के बोझ और उस पर उसके भारी भरकम बस्ते का बोझ लादकर उसे बांध बनाने की कोशिश करते हैं तो कई बार हम उनकी नदी बनने की क्षमता को भी खत्म करने की कोशिश करते हैं। हर नदी के गुण दोष जाने बिना उसे बांध में रोकना और यह सोचना कि यही एक उपाय है जिससे हम उसका उपयोग कर सकते हैं हमें तो गलत ठहराता ही है बल्कि उसकी नैसर्गिक प्रतिभा, एक नदी की तरह सामाजिकता से ओतप्रोत होकर बहने की क्षमता को भी खत्म कर देता है।

आज की तारीख में बच्चे जिस प्रकार से बांध बनाने के लिए प्रेरित किये जा रहे हैं और उनकी नदी की तरह बहने की सरलता केा खत्म किया जा रहा है वह उनकी मानव सहृदयता केा भी प्रकारान्तर से चोट ही पहुंचा रहा है। हमारी बहुत सी इच्छाएं अधूरी रह जाती हैं जिन्हें हम पूरा नहीं कर पाते। हमारे मन में इस बात का मलाल हो सकता है और हमारा यही मलाल हमारे अपने बच्चों के लिए भारी साबित हो जाता है। हम यह मानकर चलते हैं कि जो हम न कर सके वह हमारा बच्चा कर जाये। यह हमारे लिए सन्तोषप्रद होता है। और यदि हमारा बच्चा इसमें सफल नहीं हो पाता तो अक्सर उसके साथ हम खुद भी परेशान हो जाते हैं। सच तो यह है कि हमें अपने बच्चे की कुशलता व इच्छा का सही ढंग से आकलन करने की आदत डालना सीखना होगा। अपनी उम्मीदों का बांध बनाकर बच्चों की नदी का जल रोककर यह सोचना कि अब हमारा बच्चा ज्यादा ऊर्जा सृजित कर पायेगा, मूर्खता के सिवाय कुछ नहीं है। सही बात तो यह है कि बच्चे को नदी की तरह रास्ता बनाने दिया जाये और उस नदी केा जहां पर जरूरत पड़े वहां पर मेड़ बनाकर, कहीं नाली बनाकर, कहीं समतल कर, कहीं ज्यादा पानी हो जाने पर उस जल के निष्कासन की व्यवस्था करने की कला सीखने की जरूरत है। कभी हम नैसर्गिकता से अप्राकृतिकता की ओर बढ़ चले शहर बनते गांवों को लेकर चिन्तित हुआ करते रहे हैं और अब यह अप्राकृतिकता हमारे बच्चों में इस कदर प्रवेश कर गयी है कि वह नदी सी अपनी नैसर्गिकता केा तो पहले ही अपने माता पिता की उम्मीदों के तले कुचल चुके हैं वहीं अब इन्टरनेट व मोबाईल ने उनके अंदर के उस नैसर्गिक बीज केा जड़ से ही समाप्त करना शुरू कर दिया है। यदि यह बच्चे नदियां नहीं रहेंगे तो समझ नहीं आता कि प्रकृति की सुंदरता कहां रहेगी।

आप जिन्दगी को दो तरह से जी सकते हैं। आप उसे नदी की तरह जियें अथवा बांध बनाकर। अपनी जिन्दगी को आप जिस तरह से जियें मगर यदि आप खुद से इतर जिन्दगी को अपने हिसाब से ढालना चाह रहे हैं तो यह एक स्वस्थ सोच में कैसे आयेगा, यह बहस का विषय बनना चाहिये। जिन्दगी को बांध बनाकर जीने का मतलब उसे पूरी तरह से अनुशासित करते हुए उसमें जो कुछ भी सृजनात्मकता है उसकेा निचोड़ लेना या निचुड़वा लेना। उसे नदी की तरह बहते हुए जीने से मतलब स्वयं जरूरत मंद तक पहुंचकर उसकी जिन्दगी को रस से सराबोर कर देना। कोई सहमत होगा कोई सहमत नहीं होगा। मुझे नहीं लगता कि जिन्दगी को एक नदी की तरह जीने वाले व्यक्ति के अनुभव को हम कदाचित बांध बने व्यक्ति को समझा पायें। बांध बनना भी दूसरों की जरूरत पूरी करना है मगर दूसरों को खुद के प्रति मजबूर बनाकर। यह मजबूरी पैदा करना वे सिखा गये हैं जो नौकरी करना सिखा गये हैं। जिन्दगी अब नौकरी करना ही रह गयी है। जब यह चलन जिन्दगी का मुख्य हिस्सा नहीं था तब यह देश दुनियां का सिरमौर था और विश्वगुरू कहलाता था। समृद्ध था। मनुष्य स्वयं अनुशासित रहता था। जीवन स्वयं सरल व सहज था।

सुना था सत्ता सेवा का एक अवसर होता है। सेवा पास जाकर होती है। कोई कह सकता है कि सेवा दूसरों केा पास बुलाकर भी होती है। मगर दूसरों को अपने पास बुलाकर सेवा का जो प्रारूप हम पिछले सत्तर सालों से देख रहे हैं उसमें हमें सेवा कम बल्कि अहंकार ज्यादा दिखाई देता है। समाजसेवी और सत्तासुख भोगने वालेां में यही फर्क होता है। नदी बनकर बहने व जरूरतमंदों का सहारा बनने व नई नई सभ्यताओं के विकास का सहभागी बनने में जो समाजसेवा है वह समुद्र बनने में नहीं। इसीलिए सभ्यताएं नदियों के किनारे पनपी न कि समुद्र के किनारे। समुद्र का तो पानी ही खारा हो जाता है जो किसी के काम का नहीं रह पाता। भले ही उसके अंदर कितने ही रत्न भरे पड़े हों। अहंकार भी खारे पानी की तरह ही है जिसको पीने से संतुष्टि होने के बजाय मुंह बनाना पड़ता है जबकि नदी संतुष्टि का एक सर्वोत्तम मार्ग है। अहंकारी नेता स्वयं जिस अहंकार के तले पनपते हैं वहां पर जनता सिर्फ मुंह ही बिचका सकती है न कि किसी संतुष्टि को प्राप्त करती है।

जिन्दगी जब नदी बन जाती है तो सिर्फ जीवन ही बन जाती है। समुद्र की तरह किसी के पीने लायक न रहे गये पानी का आगार नहीं बनी रह जाती। मुझे लगता है, जबसे हमने नदी बनने की आदतों को विकसित करना छोड़ दिया है तब से ग्लेशियर खिसक रहे हैं। नदियां सूख रही हैं। कभी लाखों तालाबों वाला यह देश जिसकी सम्पूर्ण जल व्यवस्था यहां तक कि राजस्थान जैसे प्रदेशों में भी तालाब के जरिये व कुईं के जरिये जलसंचय द्वारा हुआ करती थी। आज हमारी भौतिक उन्नति के साथ साथ जैसे जैसे संवेदनाओं की नदियां सूखती जा रही हैं वैसे वैसे हमारी आंखों का पानी भी अपना वजूद खो रहा है। हम आज हम सिर्फ पेट तक सीमित रह गये हैं। पेट इतना बड़ा हो गया है कि समुद्र की तरह विशाल हो जाने को आतुर है। ईश्वर ने मनुष्य पर यदि एक बहुत बड़ा उपकार किया है तो यह है कि उसने धन बढ़ने के साथ साथ उसकी पेट की भूख को तो कम ही किया है, वरना कल्पना कीजिये यदि वह धन बढ़ने के साथ हमारी भोगों केा भोगने की क्षमता में भी बढ़ोतरी कर देता तो शायद हमारी नदी बनने की थोडी बहुत केाशिशें भी नाकाम साबित हो जातीं।

नदियां खूबसूरत होती हैं। ठहरा हुआ जल वैसे भी सड़ांध देता है, किसी काम का नहीं रहता। बहती नदी का तो जल भी जूठा नहीं माना जाता। यदि हम नदी बनने की ओर अग्रसर हो जायें तो शायद यह झूठ बोलने व उस झूठ बोलने के सहारे जिन्दगी जीने की हमारी आदतें भी कुर्बान हो जायें। कोशिश करना चाहता हूं कि अपने उन बच्चों को जो मेरे अधीन हैं और मेरे प्रवचन से परीक्षाएं पास करने की उम्मीद रखते हैं, नदी की तरह बढ़ा सकूं ताकि कुछ अंजलि जल से मेरे मन की प्यास भी बुझ जाये। मुझे लगे कि मेरा कुछ कहना सार्थक हो गया है, संवर गया है। वरना यदि बच्चे खारे पानी वाला समुद्र भी बन गये तो भले ही कितने ही रत्न अपने अंदर समेट लें मगर उनका जल मेरे लिए उपलब्ध होकर भी कितना उपयोगी होगा यह तो मैं क्या आप भी जानते हैं।

द्विजेन्द्र वल्लभ शर्मा

डॉ. द्विजेन्द्र वल्लभ शर्मा

आचार्य - संस्कृत साहित्य , सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय , वाराणसी 1993 बी एड - लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ , नयी दिल्ली 1994, एम ए - संस्कृत दर्शन , सेंट स्टीफेंस कॉलेज , नयी दिल्ली - 1996 एम फिल् - संस्कृत साहित्य , दिल्ली विश्व विद्यालय , दिल्ली - 1999 पी एच डी - संस्कृत साहित्य , दिल्ली विश्व विद्यालय , दिल्ली - 2007 यू जी सी नेट - 1994 जॉब - टी जी टी संस्कृत स्थायी - राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय , केशवपुरम् , दिल्ली 21-07-1998 से 7 -1 - 2007 तक उसके बाद पारिवारिक कारणों से इस्तीफा वापस घर आकर - पुनः - एल टी संस्कृत , म्युनिसिपल इंटर कॉलेज , ज्वालापुर , हरिद्वार में 08-01-2007 से निरंतर कार्यरत पता- हरिपुर कलां , मोतीचूर , वाया - रायवाला , देहरादून