वक्त का बाजार
निकल पड़ा इक शांम
खरीदने को कुछ
वक्त के बाजार में
थी जहां चहुं ओर
रोशनी ही रोशनी
भीड़ भरी राह में
सजी थी दुकानें
कहीं ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं में
तो…
कही ंगल्ली-चैराहों के
फुटपाथों में
और…
कहीं हल्की-सी झिलमिलाती
रोशनी के बाचों बीच
गलियारों में
दौड़ाई नजर तो…
दूर इक दिखा
फुटपाथ पर पड़ा
ठण्ड से बेहाल इन्सान
उस भीड़ भरे बाजार में
मगन सभी जन मगन
अपने-अपने ही
मनोभाव में
भूल गया
लेने क्या गया था
उस सांझ को
बाजार में
क्योंकि…
एक तरफ हंसी-खुशी और मस्ती है
तो दूसरी तरफ
असहाय व दुःखी इन्सान
पड़ा था राह में समझ आया कि…
यही तो है माया का संसार
कोई भरा यहां भण्डार में
तो कोई पड़ा है अकाल में
निकट जाकर मिला
उस बेबस इन्सान को
सुनी गम्भीरता से
उसकी दुःख-दर्द भरी
वेदना को
किया प्रयास व संकल्प
कि मिटे परेशानी
और मिले राहत
उस असहाय इन्सान को
वक्त के बाजार में
सेवाभाव मिले तो
यही होगी
सच्ची खरीददारी
इस संसार में
विगत वर्ष की
याद में
आगत वर्ष के
खुशहाल पल में
लेते संकल्प
यही हम कि
करें न कभी नजर अन्दाज
जरूरत मन्द इन्सान को!