“गीतिका”
काश कोई मेरे साथ होता तो घूम आता बागों बहारों में
बैठ कैसे गुजरे वक्त स्तब्ध हूँ झूम आता यादों इशारों में
पसर जाता कंधे टेक देता बिछी है कुर्सी कहता हमारी है
राह कोई भी चलता नजर घूमती रहती खुशियाँ नजारों में॥
प्यार करता उन दरख्तों को जो खुद ही अपनी पतझड़ी बुलाते हैं
आह भरते छटपटियातें हैं जब मौसम आता वादों करारों में॥
देख आता नूतन दृश्य जो अब बड़े वृक्ष हो करके खड़े लहराते हैं
जाग जाती सोई हुई कोमल पत्तियाँ अंकुर बनकर विचारों में॥
बोल कोयलिया मीठी बोली पपिहा पिपहरी परखने आया है
कान खोले स्वर ढूंढ रहा है धुन क्यों छुपी है गहन अंधारों में।।
कहन पुरानी बहुत सुनी है भौंरे फूलों में रहते गाते घिर जाते हैं
आज कहाँ गुम हुई री गुंजा झलक दिखलाती नहीं गलियारों में।।
गौतम कितना समय लगा है फिर से इस बगिया को सजाते हैं
चहल पहल कुछ बदल गयी है बिगड़ा तूफान फिरा बौंछारों में।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी