ग़ज़ल
जितना जी चाहे तेरा यार सता ले मुझको।
अपने सीने से मगर आज लगा ले मुझको।
बढ़ गया उसकी जफ़ाओं का सितम यूँ मुझ पर
चैन दे अब तो ख़ुदाया या उठा ले मुझको ।
मन के सहरा में कहां से ये समंदर आया,
मौजे-ग़म कौनसी हर रोज उछाले मुझको।
मैं तुम्हारी हूँ तुम्हारी ही रहूँगी हरदम,
दौड़ आऊंगी किसी दम भी बुलाले मुझको।
राह तकते हुए हर रात गुजारी मैंने,
अपनी बाहों में जरा देर सुलाले मुझको।
दम तो लेने दे जरा ऐ ग़मे-उल्फ़त दिल को
डर है शिद्दत ये तेरी मार न डाले मुझको।
बाद मेरे ये अँधेरा न जमाने में रहे,
रौशनी के लिए बेशक़ तू जलाले मुझको।
— आशा पांडेय ओझा