धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

सभी प्रकार के दुःखों की निवृत्ति परम पुरुषार्थ है

ओ३म्

मनुष्य का शरीर अन्नमय है। यह शीतोष्ण आदि कारणों से रोगी होकर दुःखों को प्राप्त होता है। व्यायाम की कमी, भोजन में पौष्टिक पदार्थों की कमी व अभक्ष्य पदार्थों के सेवन से भी शरीर को दुःख प्राप्त होता है। संसार में परमात्मा ने अनेक प्रकार के प्राणी बनाये हैं उनसे भी हमें जीवन में दुःख प्राप्त होने की सम्भावना रहती है। कई लोग इससे ग्रस्त भी देखें व सुने जाते हैं। हमारी पृथिवी सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करती है। इससे ऋतु परिवर्तन होते हैं। शरीर ऋतु परिवर्तन पर कई बार रोगी हो जाता है जिससे इसे दुःख होता है। अतिवृष्टि, सूखा, भूकम्प आदि से भी मनुष्यों को छोटे व बड़े दुःख होते देखे जाते हैं। ऐसे व अन्य सभी प्रकार के दुःखों से पूर्ण निवृत्ति के लिए मनुष्य को जिस साधन का सहारा लेना पड़ता है उसका नाम ही परम पुरुषार्थ है। प्रथम बात तो यह है कि हमें यह पता होना चाहिये कि संसार में दुःख कितने प्रकार के हैं। शास्त्र इसका उत्तर देते हैं कि दुःख मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं। इनके नाम आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक दुःख हैं। आध्यात्मिक दुःख उन्हें कहते हैं जो शरीर में ज्वर आदि रोग तथा काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या आदि दोषों के कारण होता है। इसके निवारण के लिये हमें इन सभी दोषों का त्याग करना है। यदि इन दोषों का त्याग नहीं करेंगे तो हम इन दोषों से होने वाले दुःखों से बच नहीं सकते। इन दोषों से बचने के लिए पुरुषार्थ करना होता है। जो पुरुषार्थ नहीं करते वह इन दोषों व इनसे होने वाले दुःखों से त्रस्त होते हैं।

शरीर में दूसरे प्रकार के होने वाले दुःखों को आधिभौतिक दुःख कहते हैं। यह दुःख मनुष्यों को चोर आदि व व्याघ्रादि प्राणियों के सम्बन्ध से हुआ करता है। इसके लिए सावधानी एवं उचित व्यवस्था करनी होती है तभी इस दुःख से बचा जा सकता है। महर्षि दयानन्द अपने जीवन के अन्तिम दिनों जब जोधपुर में थे तो उनका शाहपुरा राज्य का रहने वाला पाचक उनके चमड़े के बैग को चाकू से काटकर उसमें से सोने व चांदी की अशर्फियां व सिक्कों को ले भागा था। वह न तो पकड़ा गया और न दण्डित ही किया जा सका। स्वामी जी को अपने उस सेवक से उसकी ऐसी करतूत की आशा नहीं थी। स्वामी जी ज्ञानी थे इसलिए उन्हें इसका वह दुःख नहीं हुआ जो एक सांसारिक मनुष्य को हुआ करता है। अपने विवेक ज्ञान से उन्होंने उस घटना से दुःख का बचाव किया। व्याघ्र आदि हिंसक व इतर प्राणियों के द्वारा भी कई बार सीधे हमें व हमारे किसी मित्र व सम्बन्धी के साथ हिंसा व चोट आदि की घटनायें घट सकती है। इस प्रकार से उत्पन्न दुःख से बचने के लिए हमारी दृष्टि में दो ही उपाय हैं। एक सावधानी है। दूसरी, यदि फिर भी ऐसी कोई घटना घट जाये तो इसे ज्ञान व विवेक पूर्वक विचार करके इससे उत्पन्न दुःख से बचा जाये। यह भी जान लें कि भूत प्राणियों को कहते हैं। मनुष्य व पशु आदि सभी प्रकार के प्राणियों से होने वाले दुःख आधिभौतिक दुःख के अन्तर्गत ही आते हैं।

तीसरा दुःख आधिदैविक दुःख है। यह दुःख विद्युत, अग्नि, जल, वायु आदि दिव्य पदार्थों के सम्बन्ध से होता है। इनसे बचने के लिए भी मनुष्यों को इनसे होने वाले विभिन्न प्रकार के दुःखों का ज्ञान होना आवश्यक है और इनसे किस प्रकार से बचा जा सकता है, यह भी ज्ञान होना आवश्यक है। इनसे होने वाले दुःखों में योग्य चिकित्सक व विद्वान की सहायता भी ली जा सकती है। इसी लिए आर्यों के पंचमहायज्ञों में संगतिकरण का विधान हैं। हमारे देवयज्ञ अग्निहोत्र आदि कार्यों मेंयदि वेदों के विद्वान उपस्थित होते हैं तो वह इन त्रिविध दुःखों से रक्षा के उपायों व सावधानियां से हमारा परिचय करा सकते हैं।

इन तीनों दुःखों से जिस उपाय से बचा जा सकता है उसका नाम पुरुषार्थ है। यह गौण व मुख्य भेद से दो प्रकार का होता है। जीवन में सुख प्रदान करने वाले सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति के लिए किया जाने वाला पुरुषार्थ गौण पुरुषार्थ होता है।  हम समझते हैं कि विद्या की प्राप्ति और उससे धनोपार्जन करना व सुख सुविधा की वस्तुओं का संचय करना यह सभी कुछ गौण पुरुषार्थ के अन्तर्गत आता है। संसार में जो तीन प्रकार के त्रिविध दुःख आध्यात्मिक, आधिभौतिक व आधिदैविक कहे गये हैं उनके अन्तर्गत आने वाले दुःखों की पूर्ण निवृत्ति तथा परमानन्द की प्राप्ति को मुख्य पुरुषार्थ कहते हैं। सांख्य दर्शन के अनुसार गौण पुरुषार्थ को भोग कहते हैं। मुख्य पुरुषार्थ का नाम सांख्य दर्शन के अनुसार अपवर्ग वा मोक्ष अवस्था है। मुख्य पुरुषार्थ, परमपुरुषार्थ तथा मोक्ष शब्द पर्यायवाची शब्द हैं। सांख्य शास्त्र में इन विषयों का विस्तार से विवेचन है। इस विद्या को सभी मनुष्यों को पढ़ना चाहिये। आजकल आचार्य उदयवीर शास्त्री कृत सांख्य दर्शन की हिन्दी टीका सरलता से उपलब्ध है। इसे प्राप्त कर इसका अध्ययन अध्येता को इस विषय में यथार्थ ज्ञान प्राप्त कराने व विवेक उत्पन्न करने में सक्षम है।

समस्त वैदिक साहित्य का उद्देश्य ही मनुष्य का अभ्युदय व निःश्रेयस की प्राप्ति कराना वा उससे परिचित कराना है। इसी लिए हम सन्ध्या व अग्निहोत्र एवं योगाभ्यास आदि अन्य कर्म व क्रियायें आदि करते हैं। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं संस्कारविधि आदि ग्रन्थ लिखकर मनुष्य जाति पर महान उपकार किया है। सभी मनुष्यों को ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों से लाभ उठाना चाहिये। ज्ञान व आचरण दो पृथक चीजें हैं। यदि हम आचरण नहीं भी करते व कर सकते तो भी ज्ञान तो हमें होना ही चाहिये और वह इन ग्रन्थों व वैदिक साहित्य के अध्ययन से ही हो सकता है। मनुष्य जीवन को सार्थक करने के लिए वैदिक साहित्य का अध्ययन व आचरण अपरिहार्य है। इस संक्षिप्त चर्चा को हम यहीं पर विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य