हिंसा का शिकार आंदोलन
महाराष्ट्र में हुई हिंसा इस बात का प्रतीक है कि वे तमाम दल जो जातिवादी राजनीति करते रहे हैं और जो तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल जिनका पिछले लोकसभा चुनाव में बुरा हश्र हुआ था और उसके बाद उत्तर प्रदेश में भी इनकी यह राजनीति फेल हुई जिसे हाल ही में गुजरात में पनपाने की कोशिश की गयी है और अब महाराष्ट्र में यह कोशिश की जा रही है यह सिर्फ विकासवाद की उस राजनीति को अंधेरे में धकेलने का प्रयास इन विपक्षी दलों द्वारा किया जा रहा है जिनको लगता है कि अब उनका भविष्य खतरे में है। हैरानी की बात है कि इसके आरोप बीजेपी और आरएसएस पर लगाये जा रहे हैं जबकि समझा जाये तो कौन दल अपनी केंद्र और राज्य में सरकार रहते हुए अपने ही राज्य को दंगों में धकेलने की कोशिश करेगा।
गुजरात में 2002 के बाद कोई दंगा न होने देने वाले नरेन्द्र मोदी जब से देश के पीएम बने हैं तब से नये नये कुचक्र विगत साढ़े तीन सालों में हो चुके हैं और कहा यह जा रहा है कि बीजेपी शासन में दलितों पर अत्याचार बढ़ा है। यदि अत्याचार है तो निंदनीय है मगर जहां अन्य दलों की सरकारें हैं वहां पर जब दलितों पर अत्याचार होता है तब कोई यह समझने नहीं जाता कि वहां पर ऐसी घटनाएं क्यों हो रही हैं। मगर अपने अस्तित्व के संकट से घबराया विपक्ष निरंतर कुछ न कुछ उपद्रव करने की कोशिश कर रहा है। फिलहाल इस बात पर बहस करना तर्कसंगत नहीं है कि अंग्रेजों की फूट डालो राज करो नीति का मोहरा बने वे दलित अपने ही देश के उन पेशवाओं के खिलाफ लड़े जिससे सिर्फ अंग्रेज ही मजबूत हुए थे और आज गर्व कर रहे हैं क्योंकि यह किसी के मत में गर्व का विषय हो सकता है जिस मत पर आप अपनी सहमति या असहमति जता सकते हैं। मगर लगता है कि विपक्ष अपनी हार से सबक नहीं ले रहा है।
— डाॅ द्विजेन्द्र शर्मा, हरिपुरकलां , देहरादून