कविता : हाँ मैं वेश्या हूं
हाँ मैं वेश्या हूं
पाप की पुड़िया हूं
चंद सिक्कों की खनक में
बेचती हूं अपना जिस्म
पर
लाख अच्छी हूं
इन नर्तकियों /मॉडलों/विश्वसुंदरियों से…
मैं बचाती हूं
उन नन्हीं – नन्हीं कलियों को
खूनी, वहसी, दरिन्दों/शैतानों/हैवानों से…
समाज देता है
गाली मुझे
और उन वेशर्म रंडियों का फोटो
बैडरूम में सजाता है
अभिनेत्रीयां कहता है
जो अधनग्न कमर मटकाती हैं,
स्तन दिखाती हैं
इंसान के अंदर शैतान जगाती हैं
और मैं उसी शैतान को
इंसान बनाती हूं…
हाँ मैं वेश्या हूं
और लाख अच्छी हूं…
— मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
(नोट- इस रचना का उद्देश्य वेश्यावृत्ति को बढ़ावा देना कतई नहीं है।)