सामाजिक

लेख– काश! स्कूली बच्चों के साथ यह आखिरी हादसा हो

सुप्रीम कोर्ट के 1997 में दिए गए एक फैसले का हवाला देते हुए सीबीएसई के डिप्टी सेक्रेटरी के श्रीनिवासन ने 2017 में एक सर्कुलर जारी किया। जिसके मुताबिक स्कूल बस में सफर करने वाले हर बच्चे की सुरक्षा की जिम्मेदारी स्कूलों की है। लेकिन शायद वह जिम्मेदारी निभाते स्कूल प्रशासन दिखते नहीं? स्कूल बसों की स्पीड 40 से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। साथ में स्पीड गवर्नर भी बस में लगा होना चाहिए, इसके साथ जीपीएस सिस्टम और सीसीटीवी कैमरे भी स्कूल बसों में लगें होने चाहिए, क्या मध्यप्रदेश की सड़कों पर बेलगाम दौड़ती बसें इन नियमों को पूर्ण करती है, शायद नहीं। इंदौर में स्कूली बच्चों के साथ हुआ दर्दनाक हादसा कई सवाल ख़ड़े करता है, तो वहीं उत्तर प्रदेश के एटा जिले की सड़क ने बच्चों के खून के साथ जो खून की होली खेली थी, उस ह्रदय-विदारक घटना को फ़िर ज़ेहन में जिंदा कर दिया।

एटा में हुए सड़क हादसे में दो दर्जन से ज्यादा मासूम बच्चें काल के गाल में समा गए थे। ऐसे में क्या अब ऐसा समय आएगा, जब बच्चों की जिंदगी इस तरीके से कालकलवित होने से बच पाएगी? या हर घटना के बाद सिर्फ़ हम कहते रहेंगे, कि काश! यह घटना बच्चों के साथ आखिरी घटना हो। देश में साल दर साल स्कूल जाने के दौरान बच्चों के साथ होने वाले सड़क हादसों में बढ़ोत्तरी हुई है। आंकड़ों की दुहाई दी जाए, तो मिनि​स्ट्री ऑफ स्टैटिस्टिक्स एंड प्रोग्राम इंप्लीमेंटेशन के डेटा के मुताबिक 2001 में जहां सड़क दुघर्टना में 14 वर्ष से कम उम्र के लगभग 19 हज़ार स्कूली बच्चों की मौत हुई, वहीं 2012 में यह आंकड़ा बढ़कर 21,332 पर पहुँच गया। ऐसे समय मे याद महाराष्ट्र राज्य की आती है। जहां की सरकार ने स्कूल सेफ्टी रूल्स बना रखा है। जिसके मुताबिक बस सुरक्षा को लेकर एक अलग कमेटी बनेगी। जिसमें स्कूल प्राचार्य , बस संचालक, पुलिस अधिकारी , आरटीओ अधिकारी समेत अन्य अधिकारी भी कमेटी में शामिल होंगे। इस कमेटी की दिलचस्प बात यह है, कि इसके मुताबिक बस की सुरक्षा पूरी तरह से स्कूल प्राचार्य की होगी। तो क्या यह नियम पूरे देश में लागू नहीं होना चाहिए। साथ में इस नियम का कड़ाई से अनुपालन होना चाहिए। जिससे स्कूल प्रशासन बसों आदि की कंडम स्थिति को उभारकर ही उसे सड़क पर दौड़ने की अनुमति दे।

जब अभिवावक अपने बच्चें को स्कूल प्रशासन के भरोसे छोड़ता है, तो उम्मीद करता है, कि उसके बच्चे एक सुरक्षित हाथो में है, न कि मजबूर। देश की सबसे बड़ी विडंबना यह है, कि राजनीतिक दल सबसे पहले अपना नफा- नुकसान देखते हैं, तभी तो देश आज भी अंग्रेजों के बनाए कानून को ढोने को मजबूर है। समय बदल गया, आवागमन के तौर-तरीक़े बदल गए, औऱ सड़कों पर चलने वालों की स्थिति बदल गई,लेकिन देश आज भी अंग्रेजों का मोटर व्हीकल अधिनियम ही झेल रहा है, जो एक चिंताजनक बात है। नियमों की समीक्षा और सुधार होना चाहिए, पर रहनुमाई व्यवस्था के पास इसके लिए वक्त कहाँ? सड़क पर चलने वाले अस्सी फीसद देश के वाहन चालकों को यातायात नियमों की भलीभाॅति जानकारी ही नहीं है। इसके लिए जिम्मेदार प्रशासन व्यवस्था है, जो लाइसेंस प्रणाली में नियमों का पालन सही मायने में करवाती ही नहीं है।

रिश्वत लेकर लाइसेंस देने की खबरें भी अखबारों का हिस्सा बनती रहती है। ऐसे में काश कोई यह ज़हमत जोह पाता, और रहनुमाई व्यवस्था से सवाल करता, कि बिना प्रशिक्षण बेलगाम चक्के को सड़कों पर दौड़ाने की परमिट कैसे जारी हो जाती है? रोड सेफ्टी के नियमों की हर स्कूल ड्राइवर को नियमित ट्रेनिंग अनिवार्य क्यों नहीं की जाती? ट्रक मालिकों और ड्राइवर्स पर इतनी ढील क्यों दी जाती है, जबकि अधिकांश सड़क दुर्घटनाएं ट्रक द्वारा टक्कर मारने की बात समय-समय पर सामने आती रहती है? इससे भी बढ़कर सड़क बनाने में ठेकेदार तय मानकों का अनुपालन क्यों नहीं करते हैं? ये कुछ यक्ष प्रश्न है, जिनपर जब तक गंभीरता से मंथन नहीं किया जाएगा, तब तक सड़क हादसों के आंकड़े बढ़ते ही जायेंगे, और हम काश! अब ये स्कूली बच्चों के साथ हादसे बंद हो का विचार करते रहेंगे। ऐसे में अगर स्कूली बच्चों के साथ सड़क को रक्तरंजित होने के अभिशाप से मुक्त करना है, तो व्यक्ति, समाज और सरकार तीनों को सड़क सुरक्षा को लेकर समग्र प्रयास करने होंगे। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896