“ऋतु की सौगत जाड़ा गर्मी बरसात”
समय समय की बात है शायद यही तो ऋतुओं की सौगात है। गर्मी जाड़ा और बरसात हमारे साथ साथ है पर हम भूल जाते हैं प्रकृति के तासीर को और मनमानी करने से बाज नहीं आते। कभी तो हम इतने गरम हो जाते हैं कि शरीर के वस्त्र तक उतार फेंफते है और जब भीगते हैं तो उन वस्त्रों को याद करते लगते हैं जिन्हें हम कभी मन शरीर से उतार चुके होते हैं । जरूरत पड़ने पर उन्हें ढूढ़ने लगते है अपना पानी पोछने के लिए और फिर उन्हें भिगाकर पसार देते हैं अरगनियों पर धूप में सूखने के लिए और जरूरत पर अपना कहकर उतार लेते हैं। आज कोहरे की धुंध और ठंडी की गलन में हमारे झिलकू भैया जब काँपने लगे तो उन्हें याद आया कि नए पुराने सभी कपड़े एक जैसे ही होते हैं जो हमारी रक्षा ही करते हैं। फरक केवल इतना है कि चमक पर हम आफरीन हैं और बेचमक को दरकिनार करने के आदी, यह जानते हुए हो चुके हैं कि चमक एक न एक दिन सबकी उतरती है और मूल्य भी गिरता है परन्तु बेकार कोई नहीं है समय आने पर जरूरत सबकी पड़ती है। जब गर्मी थी तो नंग धड़ंग घूमने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि नंगापन की भी अपनी एक हद होती है जिसको किसी अवसर या बहाने पर सरेआम करना उचित नहीं है। खैर, आज जब कपकपी चढ़ी तो रूह् लपेटने को वाध्य हो गए हैं झिनकू भैया, जो अपने उन सभी पुराने वस्त्रों को, चद्दरों, रजाइयों व विस्तरों को देखकर घिन्ना जाते थे और मुँह बिचका लिया करते थे। आज उन्हें ही सूँघ रहे हैं और सीने से चिपकाए जा रहे हैं पर उनकी ठंडी में रत्ती माशा भी फर्क नहीं पड़ रहा है शायद जमी हुई मैल गलने लगी है और भैया ठिठुरने लगे हैं। गरमाने में भी समय लगता है इसी उम्मीद में दुबके हुए हैं अपने खटिया विस्तर पर और झाँक रहे हैं खिड़कियों से उस सूरज को जो अब बहुत दूर है और बर्फीली ओस से कुछ समय के लिए ढँक गया है।
समय आने पर पिघलना ही है इस बर्फबारी को पर न जाने कितने इसमें दब गए और कितने परत दर परत जम ही गए हैं। भला हो भौजी का अदरक वाली चाय अंदर गई तो झिलकू भैया की जबान खुली और बोले अरे भागवान कुछ अलाव भी जला दो सब साथ बैठकर हाथ सेंक लें इसी में भलाई है। यह ठंड नहीं हमारी अपनों से रुसवाई है और भौजी की मधुर हाँक से माहौल गरम हुआ तो झिलकू भैया गर्मी पाकर छलक गए।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी